Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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का है। यही निर्देश आचार्य हरिभद्र भिक्षुप्रतिमा - कल्पविधि - पंचाशक की पैंतीसवीं एवं छत्तीसवीं गाथाओं में करते हैं, जो इस प्रकार है
भव्य जीवों को दीक्षा देना अन्य उपकारों की अपेक्षा श्रेष्ठतम उपकार है, क्योंकि दीक्षा मोक्ष का कारण है । भद्रबाहुस्वामी आदि पूवाचार्यों ने संहनन, श्रुत आदि सम्पन्न प्रतिमाकल्प के योग्य साधुओं को भी, यदि दीक्षा का उपकार होता हो, तो प्रतिमाकल्प धारण करने का स्पष्ट निषेध किया है। कल्प को स्वीकार करने के बाद दीक्षा नहीं दी जा सकती, इसलिए प्रतिमाकल्प को स्वीकार करते समय यदि कोई दीक्षा लेने आए, तो पहले उसे दीक्षा देना चाहिए, क्योंकि दीक्षा प्रदान करना प्रतिमाकल्प की अपेक्षा अधिक लाभदायी है।
अभ्युद्यत-मरण (समाधिमरण) और प्रतिमा - कल्प- इन दो में से किसी एक को स्वीकार करने की इच्छा वाला गणिगुण और स्वलब्धि से युक्त साधु भी कल्प आदि को स्वीकार करते समय भी सर्वप्रथम दीक्षा लेने आने वाले योग्य जीव को दीक्षा दे। जो गणिगुण और स्वलब्धि से युक्त न हों, वे भी यदि लब्धियुक्त आचार्य की निश्रा वाले हों, तो सर्वप्रथम दीक्षा दें, उसके पश्चात् कल्प आदि धारण करें।
कर्मविपाक - रूप रोगों की चिकित्सा - विधिउनतीसवीं गाथा में कहा गया है कि कर्मण्याधि की प्रव्रज्या - रूपी चिकित्सा को भाव से स्वीकार करने वाले साधु की अन्य जिन अवस्थाओं का निर्देश किया गया है, उसकी विधि आचार्य हरिभद्र भिक्षुप्रतिमा–कल्पविधि–पंचाशक की सैंतीवसीं एवं अड़तीसवीं गाथाओं में बताते हैं, जो इस प्रकार है
जिस प्रकार लूता - रोग से ग्रस्त राजा की सर्पदंश आदि के कारण अन्य विकृत अवस्थाएं होती हैं, उसी प्रकार प्रव्रजित साधु की अशुभ कर्मों के उदय से अन्य विकृत अवस्थाएं होती हैं, जो प्रतिमाकल्प - रूप विशिष्ट चिकित्सा से ही ठीक होती है।
' पंचाशक - प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि - 18 / 35, 36 - पृ. -
2 पंचाशक - प्रकरण
आ. हरिभद्रसूरि - 18 / 37, 38 - पृ. 328
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