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अन्य विकृतियों या उनके जनक कर्म सामान्य प्रव्रज्या में विघ्नकारक और संक्लिष्ट हैं, इसलिए प्रतिमाकल्प-रूप शुभभाव को स्वीकार करके ही उन अशुभ कर्मों को दूर किया जा सकता है। प्रश्न- कर्मजन्य विकृतियों को प्रतिमाकल्प से दूर किया जा सकता है- इसे कैसे जानें ? उत्तर- इसे आप्तवचन से जाना जा सकता है, क्योंकि आप्तवचन कभी अन्यथा नहीं होते हैं।
प्रस्तुत पंचाशक की तेईसवीं गाथा में यह कहा गया है कि हल्का भोजन भी लाभकारी नहीं। इसका समाधान आचार्य हरिभद्र भिक्षुप्रतिमा-कल्पविधि –पंचाशक की उनचालीसवीं से इक्तालीसवीं तक की गाथाओं में वर्णित करते हैं
अन्य विकृत अवस्थाओं के जनक अशुभकर्म का क्षय प्रतिमाकल्प से होता है, इसलिए अन्य-प्रान्त भोजन करने वाले प्रतिमाधारी की काया की पीड़ा भी निरर्थक नहीं है, क्योंकि वह पीड़ा भी प्रयोजनपूर्ण और मानसिक दीनता से रहित होती है। दीन-भाव न होने का कारण- कायिक–पीड़ा होने पर भी प्रतिमाधारी के मोह-भाव संयम-स्थान (चारित्रिक-शुद्धि) से पतित नहीं होते हैं, अपितु वृद्धिगत ही होते हैं। मनोवृत्तियों के पतित न होने से देहपात होने पर भी किसी तरह का दोष नहीं लगता है। क्लिष्ट, क्लिष्टत और क्लिष्टतम- ऐसे विचित्र प्रकार के ज्ञानावरणीय-कर्मों के नाश के उपाय भी स्थविरकल्प, प्रतिमाकल्प आदि में क्रमभेद से वर्णित हैं और वे उपाय कायिक–पीड़ा को सहन करने रूप हैं, इसलिए साधना के क्षेत्र में देहदण्ड सुसंगत हैऐसा जानना चाहिए।
____ व्यवहार में भी हम यह अनुभव करते हैं कि जब स्वास्थ्य बिगड़ा हुआ हो, तो व्यक्ति को भी हल्का भोजन, नीरस भोजन, कम भोजन आदि बताया जाता है। ऐसी स्थिति में वह पीड़ा का अनुभव नहीं करता है, अर्थात् उसे मानसिक-वेदना का अनुभव नहीं होता है। जब व्यक्ति अपने शरीर के ममत्व के कारण कायिक–पीड़ा होते हुए भी मानसिक पीड़ा का अनुभव नहीं करता है, तो आत्मसाधक, जिसने मन से ही प्रतिमा को
1 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 18/39, 40, 41 – पृ. – 328
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