Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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कालान्तर
प्रतिमाकल्प के योग्य बना देता है । जैसे, पानी की एक-एक बूंद से घड़ा
भर जाता है, एक - एक ईंट के संग्रह से मकान बन जाता है, एक-एक पैसे को जोड़ने वाला धनवान् बन जाता है, वैसे ही एक-एक अभिग्रह या प्रतिज्ञा करने वाला एक दिन महाअभिग्रह (प्रतिमा) धारी बन सकता है। अतः, साधु इस प्रकार के अभिग्रह धारण करे कि आज अपमान सहन करूंगा, गर्मी सहन करूंगा, सूर्य की आतापन लूंगा, एक पांव पर खड़ा रहूंगा, जो पहली बार में आहार मिलेगा, वही आहार करूंगा, एक द्रव्य ही लूंगा, कुछ पल या घण्टे अपलक निहारूंगा आदि । ऐसे छोटे-छोटे एक-एक अभिग्रह प्रतिदिन लेते हुए साधु अपने अभिग्रह में वृद्धि करता रहे। इसी बात को पुष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र भिक्षुप्रतिमा - कल्पविधि - पंचाशक की सैंतालीसवीं एवं अड़तालीसवीं गाथाओं में कहते हैं
प्रतिमाकल्प धारण करने में समर्थ साधु को प्रतिमाकल्प को अवश्य स्वीकार करना चाहिए। जो इसके योग्य नहीं है, उन्हें भी कोई अभिग्रह - विशेष अवश्य धारण करना चाहिए ।
जिस-जिस काल में विशुद्ध क्रियारूप जो-जो भी अभिग्रह गीतार्थों को मान्य हों और विशिष्ट होने के कारण शासन - प्रभावना के कारण हों, उन अभिग्रहों को मनसा और कर्मणा - दोनों से ही स्वीकारना चाहिए, यथा- ठण्ड आदि को सहन करना, उत्कट आदि आसन पर बैठना आदि ।
आगम-वाणी है कि यदि साधु अभिग्रह धारण नहीं करता है, तो दोष लगता है। साधु अपनी शक्ति के अनुसार अभिग्रह अवश्य धारण करे। यदि दुष्कर और कठोर अभिग्रह धारण करने में असमर्थ हो, तो सामान्य - सरल अभिग्रह अवश्य धारण करता रहे। यदि वह अपनी शक्ति को छिपाता है, या प्रमाद करता है, तो उसे दोष लगता है। इसी दोष को बताते हुए आचार्य हरिभद्र ने भिक्षुप्रतिमा- कल्पविधि-पंचाशक की उनपचासवीं गाथा में कहा है
2 पंचाशक - प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि - 18/49 - पृ. - 331
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