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युक्तिसंगत और उचित हों, वही सदागम हो सकता है। प्रतिमाकल्प आगमोक्त और युक्तिसंगत है, इसलिए हमने जो समाधान पहले किया था, वह अन्य आचार्यों की अपेक्षा से भी उचित ही सिद्ध होता है।
प्रतिमाकल्प आगमविहित एवं युक्तिसंगत अनुष्ठान है। यदि आगम से प्रतिमाकल्प का निर्णय नहीं हो सकता हो, तो उचित युक्ति भी आगम से विरुद्ध होना चाहिए, किन्तु यदि युक्ति आगम-विरुद्ध है, तो वह युक्तियुक्त नहीं है। इस निर्णय को इस प्रकार स्पष्ट आचार्य हरिभद्र भिक्षुप्रतिमा-कल्पविधि-पंचाशक की पैंतालीसवीं गाथा में करते हैं
जो युक्ति से अविरुद्ध हो, वह सदागम है। युक्ति भी सदागम से अविरुद्ध होती है। सदागम से विरुद्ध युक्ति युक्ति नहीं है। इस प्रकार, सदागम और युक्ति परस्पर सम्बद्ध हैं। इनकी परस्पर सम्बद्धता ही सम्यक् अर्थनिर्णय का हेतु है। प्रतिमाधारी के ध्यान का स्वरूपे- प्रतिमाधारी को अपने लक्ष्य को सिद्ध करने के लिए सालम्बन ध्यान करना चाहिए, क्योंकि आलम्बनपूर्वक किया गया ध्यान राग-द्वेष से उपरत करता है।
इस ध्यान के स्वरूप का वर्णन आचार्य हरिभद्र ने भिक्षुप्रतिमाकल्पविधि-पंचाशक की छियालीसवीं गाथा में किया हैं
___प्रतिमाकल्प पर होने वाले आक्षेपों के निराकरण हेतु यह प्रासंगिक कथन किया गया है कि प्रतिमाधारी को सदा सूत्रार्थ-चिन्तनरूप ध्यान करना चाहिए। यह ध्यान राग-द्वेष और मोह आदि का विनाशक और मोक्ष का कारण होने से श्रेष्ठ है। प्रतिमा के अयोग्य साधु को भी अभिग्रह तो लेना चाहिए- प्रतिमाकल्प आचरण करने योग्य है। यदि साधु प्रतिमाकल्प को अपनाने में अपने को असमर्थ अनुभव करे, तो कुछ अभिग्रह, अर्थात् कुछ प्रतिज्ञाएँ अवश्य धारण करे, क्योंकि अभिग्रह के द्वारा प्रतिमा वहन करने की क्षमता का भी संग्रह किया जा सकता है और यही संग्रह
| पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 18/45 - पृ. - पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 18/46 - पृ. - 331
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' पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 18/47, 48 - पृ. - 331
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