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जिनेश्वर ने सामान्यतया मासिकी आदि बारह भिक्षुप्रतिमाएं कही हैं। विशेष प्रकार से वज्रमध्या, यवमध्या, भद्रा आदि अनेक प्रतिमाएं कही गई हैं। ये प्रतिमाएं विशिष्ट साधना करने वाले साधु का प्रशस्त अध्यवसायरूपी शरीर हैं।
____ यहाँ साधु के शरीर को प्रतिमा कहा गया है। इसे शरीर कहने का तात्पर्य है कि विशिष्ट क्रिया वाले शरीर से तथाविध गुणों का योग होता है, जिनके कारण प्रतिमाधारी साधु अन्य साधुओं की अपेक्षा प्रधान हो जाते हैं। यही दर्शाने के लिए यहाँ शुभभावयुक्त साधु के शरीर को प्रतिमा कहा जाता है। आवश्यक-नियुक्ति में कही गई प्रतिमाएंआचार्य हरिभद्र भिक्षुप्रतिमा-कल्पविधि-पंचाशक की तीसरी गाथा में आवश्यक- नियुक्ति के अनुसार बारह प्रतिमाओं का स्वरूप बताया है, जो इस प्रकार है
____एक महीने से आरम्भ करके क्रमशः एक-एक महीने की वृद्धि से सात महीनों तक की कुल सात प्रतिमाएं हैं, यथा- मासिकी, द्विमासिकी, त्रिमासिकी, चतुर्मासिकी, पच्चमासिकी, षण्मासिकी, सप्तमासिकी। इसके बाद पहली, दूसरी और तीसरी (पहले की सात प्रतिमाओं को साथ लेकर गिनें, तो आठवीं, नौवीं और दसवीं)- ये तीन प्रतिमाएं सप्त रात्रि की है, अर्थात् एक दिवस-रात्रि की और अंतिम बारहवीं प्रतिमा मात्र एक रात्रि की हैं। इस प्रकार कुल बारह प्रतिमाएं हैं। प्रतिमा धारण करने के लिए योग्यता- प्रतिमा धारण करने वालों में निम्न योग्यताओं का होना अनिवार्य है। सर्वप्रथम, मुनि को सहिष्णु होना चाहिए। इसके पश्चात्, ममत्वरहित होना चाहिए, इन्द्रियजित् होना चाहिए, संवेग-निर्वेदयुक्त तथा क्षमा, मार्दव, आर्जव आदि गुणों से परिपूर्ण होना चाहिए, जिससे प्रतिमाओं को धारण कर वह सिद्धि को प्राप्त कर सकता है, अन्यथा विचलित हो सकता है। इसी योग्यता का आचार्य हरिभद्र ने भिक्षुप्रतिमा-कल्पविधि-पंचाशक की चौथी, पांचवीं एवं छठवीं गाथाओं में प्रतिपादन किया है, जो इस प्रकार है
' पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 18/4, 5, 6 – पृ. - 314
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