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प्रारंभ की दो भिक्षा कभी नहीं लेने वाला। शेष पांच में से एक पानी की और एक आहार की- इस प्रकार दो ऐषणाओं का अभिग्रह होता है- ऐसी ऐषणा (भिक्षा) लेने वाला। 11. अलेप आहार लेने वाला- चिकनाई रहित भोजन लेने वाला। 12. अभिग्रह वाली उपाधि लेने वाला- प्रतिमाकल्प के योग्य अभिग्रह से मिली उपाधि लेनी चाहिए, प्रतिमाकल्प के योग्य उपाधि न मिले, तो न लें- ऐसा साधु।
प्रतिमा स्वीकार करने के पूर्व प्रतिमाओं की साधना के लिए साधक को गच्छ में रहकर पूर्ण रूप से तैयार होना चाहिए तथा प्रतिमा धारण करने के लिए गुरु (आचार्य) की आज्ञा प्राप्त करना चाहिए। गच्छ में रहकर जो आहार-संयम आदि में योग्य बन गए हों, वे ही साधक गच्छ से बाहर रहकर प्रतिमाओं की आचरणा करें।
इन प्रतिमाओं की साधना करने का अधिकार हर साधु को नहीं है। संघयण करने वाले साधु ही इनकी साधना कर सकते हैं, साथ ही वे अभिग्रहपूर्वक भिक्षा ग्रहण करने वाले एवं अलेपकृत आहार ग्रहण करने वाले हों। इस प्रकार की योग्यता धारण करने वाले साधु ही गच्छ से बाहर रहकर मासिकी आदि प्रतिमाएं स्वीकार कर सकते हैं।
आचार्य हरिभद्र भिक्षुप्रतिमाकल्पविधि-पंचाशक की सातवीं से लेकर बारहवी तक की गाथाओं में' इन्हीं सब बातों का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं
___उपर्युक्त साधु ही गच्छ से निकलकर मासिकी आदि महाप्रतिमाओं को स्वीकार करते हैं। इसकी विधि इस प्रकार है- प्रतिमा स्वीकार करने वाला यदि आचार्य है, तो दूसरे साधु को आचार्य पद पर बैठाकर शरद्-ऋतु में शुभ योग होने पर मासिकी-प्रतिमा को स्वीकार करे तथा गच्छ से निकलते समय सभी साधुओं को बुलाकर क्षमापना करे।
मासिकी प्रतिमा के अभिग्रह (नियम)
पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 18/7 से 12 – पृ. - 315, 316
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