Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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7. यह प्रतिमा प्रथम रात्रि के बाद अट्ठम (अष्टम) तप करने से कुल चार दिन की होती
है।
प्रतिमाकल्प-विषयक भेद
कई लोग किसी भी व्यक्ति के विचारों से सहमत नहीं होते हैं । हरेक के अलग-अलग विचार होते हैं। इन विचारों का ही परिणाम है कि आज अलग–अलग मत, सम्प्रदाय, गण, समूह, व्याख्या, परम्परा बन गई हैं । यदि विचारों में भेद न हो, तो आचार में भेद होगा ही नहीं ? जहाँ विचारों में भेद आया, वहाँ आचार-भेद स्वतः हो गया ।
प्रतिमाओं के स्वरूप के सम्बन्ध में भी लोगों अपने-अपने विचार हैं । उनका कथन है कि प्रतिमा का विधान गच्छ से गांव से बाहर रहकर करना अनुचित है, परन्तु दूसरी ओर, आप्त - पुरुषों के विधान में व्यवधान डालना भी युक्ति-संगत नहीं है। इस प्रकार के प्रतिमा के विषय - सम्बन्धी विभिन्न मतों का उल्लेख आचार्य हरिभद्र ने भिक्षुप्रतिमा - कल्पविधि - पंचाशक की इक्कीसवीं से लेकर चौबीसवीं तक की गाथाओं में किया है
प्रतिमाकल्प में भी प्रतिमाओं के गुरु-लाघव की विधिवत् विचारणा नहीं हुई है। कुछ आचार्यों की मान्यता है कि गच्छवास अधिक लाभकारी (गुरु) है, क्योंकि उससे अपना और पराया— दोनों का उपकार होता है और गच्छनिर्गमन कम लाभकारी (लघु) है, क्योंकि उससे केवल अपने वर्ग का ही उपकार होता है । तप आदि तो गच्छवास और गच्छनिर्गमन— दोनों में समान हैं । गच्छनिर्गमन और धर्मोपदेश न देना- ये दोनों ही बातें लाभकारी नहीं हैं, क्योंकि गच्छ में रहने पर गुरुपारतन्त्र्य, विनय, स्वाध्याय, स्मरणा, वैयावृत्त, गुणवृद्धि और शिष्य - परम्परा - ये लाभ होते हैं। गच्छनिर्गमन से ये लाभ नहीं होते हैं।
गुरु-पारतन्त्र्यको रोकती है। विनय
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आचार्य की अधीनता । यह सम्पूर्ण अनर्थों की कारणभूत स्वच्छन्दता
अहंकार का हनन करने वाला होता है ।
पंचाशक - प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि - 18 / 21 से 24 पृ. 321, 322
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