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मास पूर्ण होने के पश्चात् की विधि- गच्छ से निकलकर जो साधु मासिकी-महाप्रतिमा अंगीकार करता है, वह आहार एवं पानी की एक-एक दत्ति लेता है, चलते हुए, सूर्यास्त जहाँ हो गया, वहाँ से एक कदम भी आगे नहीं बढ़ाता है, जहाँ है, वहीं रुक जाता है, एक स्थान पर एक रात्रि ही रहता है, यह प्रतिमाधारी है- यह किसी को ज्ञात नहीं हो, तो दो रात्रि रहता है, हिंसक-पशुओं से भयभीत होकर एक कदम भी इधर-उधर नहीं होता है, मासिक-प्रतिमा पूर्ण होने पर पुनः गच्छ में प्रवेश करता है।
प्रवेश करने के पूर्व परीक्षा में यही वर्णन आचार्य हरिभद्र ने भिक्षुप्रतिमा-कल्पविधि-पंचाशक की तेरहवीं गाथा में किया है, जो निम्न प्रकार से है
___ मासकल्प पूर्ण होने के बाद भव्यता के साथ गच्छ में प्रवेश करे, जो इस प्रकार है- जिस गांव में गच्छ के साधु हों, उसके समीप के गांव में वह साधु आए। आचार्य उसकी परीक्षा करें और इसकी सूचना राजा को दें और तब उसकी प्रशंसा करते हुए प्रवेश कराएं।
द्विमासिकी, त्रिमासिकी आदि से लेकर सप्तमासिकी-भिक्षुप्रतिमा तक यही विधि है, लेकिन उनमें क्रमशः एक-एक दत्ति की वृद्धि होती है। दूसरी प्रतिमा में दो, तीसरी प्रतिमा में तीन- इस क्रम से सातवी प्रतिमा में सात दत्ति होती हैं। आठवीं प्रतिमा का स्वरूप-
पूर्व की सात प्रतिमाओं में सातवी प्रतिमा तक क्रमशः उनकी संख्या के अनुसार मासों और दत्तियों की संख्या बढ़ती रहती है, परन्तु आठवीं प्रतिमा में समयावधि कम हो जाती है और साधना कठोर हो जाती है। प्रस्तुत प्रतिमा का समय सात दिवसीय ही है, पर गांव के बाहर उपसर्गों को सहन करता हुआ प्रतिमा का पालन करे।
प्रस्तुत प्रतिमा के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए आचार्य हरिभद्र भिक्षुप्रतिमा-कल्पविधि-पंचाशक की चौदहवीं एवं पन्द्रहवीं गाथाओं में लिखते हैं
पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 18/13 - पृ. -318 2 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 18/14, 15 -पृ. -319
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