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सप्त दिवसीय आठवीं प्रतिमा की पूर्वोक्त सात प्रतिमाओं से निम्नलिखित भिन्नताएँ हैं1. एकान्तर से चौविहार उपवास करे। 2. पारणे में आयम्बिल करे। .. 3. इसमें दत्ति का नियम नहीं होता है। 4. गांव के बाहर उत्तान शयन करें या एक ही करवट लेकर सोए, अथवा पद्मासन लगाकर बैठे- इन तीन स्थितियों में से किसी एक स्थिति में रहकर भी देव, मनुष्य, तिर्यन्च आदि के उपसर्गों को मानसिक और शारीरिक-विचलन से रहित होकर सहन करे। नौवीं प्रतिमा का स्वरूप- साधक ज्यों-ज्यों प्रतिमा की संख्याओं में आगे बढ़ता है, त्यों-त्यों साधना का स्तर भी बढ़ता जाता है। आठवीं प्रतिमा से नौवीं प्रतिमा की साधना कठिनतर है, जबकि उसकी समयावधि पूर्वप्रतिमावत् सात दिवस की ही है। इसमें दत्ति की संख्या का कोई नियम नहीं है, परन्तु साधना के समय कायिक परीषह सहन करना कठिन है, क्योंकि इस साधना में सात दिवस ही पीठ के बल पर, अथवा केवल मस्तक एवं पांव के आधार पर साधना करते हुए मनुष्य, तिर्यन्च और देवों के उपसर्गों को सहन करे। इसी प्रतिमा के स्वरूप का चित्रण आचार्य हरिभद्र ने भिक्षुप्रतिमा-कल्पविधि-पंचाशक की सोलहवीं गाथा में प्रस्तुत किया है
दूसरी सप्तदिवसीय प्रतिमा भी पहली सप्तदिवसीय प्रतिमा जैसी ही है, क्योंकि इसमें भी तप, पारणा और गांव के बाहर रहने की विधि एक समान ही है, किन्तु इतनी विशेषता है कि साधु उत्कटुक आसन से (घुटनों को जमीन से स्पर्श न कराते हुए) बैठे, टेढ़ी लकीर के समान सोएं, अर्थात् जमीन को केवल सिर और पैर का स्पर्श हो, अथवा जमीन को केवल पीठ स्पर्श करे और मस्तक या पैर ऊपर रहें- इस प्रकार सोए। लकड़ी की तरह लम्बा होकर सोए- इन तीन में से किसी भी एक स्थिति में रहकर उपसर्गों को सहन करे।
' पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 18/16 - पृ. - 319
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