Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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1. संहननयुक्त 2. घृतियुक्त 3. महासात्विक 4 भावितात्मा 5 सुनिर्मित 6. उत्कृष्ट से थोड़ा कम दस पूर्व और जघन्य से नौंवे पूर्व की तीसरी वस्तु तक श्रुत का ज्ञानी 7. व्युत्सृष्टकाय 8. व्यक्तकाय 9 जिनकल्पी की तरह उपसर्गसहिष्णु 10. अभिग्रह वाली भिक्षा लेने वाला 11. अलेप आहार लेने वाला और 12. अभिग्रह वाली उपाधि लेने वाला साधु ही गुरु से सम्यक् आज्ञा प्राप्त कर इन प्रतिमाओं को स्वीकार करता है । 1. संहनन (संघयण) युक्त- प्रथम तीन संहननों, अर्थात् हड्डियों के विशिष्ट जोड़ वाली शारीरिक-संरचना वाले में से किसी एक संहनन वाला साधु परीषह सहन करने में समर्थ होता है।
2. धृतियुक्त -
है।
3. सात्विक
करता है।
4. भावितात्मा
गच्छ के आचार्य या गुरु की आगमानुसार आज्ञा लेकर जिसने चित्त को सद्भावना से भावित बनाया हो, या जिसने पूर्व में प्रतिमाओं का अभ्यास किया हो,
वह भावितात्मा है।
5. सुनिर्मितअभ्यास किया हो । 6. श्रुतज्ञानी - नौंवें पूर्व की तीसरी वस्तु तक का ज्ञाता हो, वह श्रुतज्ञानी है ।
7. व्युत्सृष्टकाय - शारीरिक-सेवा की आकांक्षा से रहित ।
8. व्यक्तकाय- शरीर के ममत्व से रहित ।
9. उपसर्गसहिष्णु– जिनकल्पी की तरह देवकृत, मनुष्यकृत आदि उपसर्गों को सहन
करने वाला ।
10. अभिग्रहयुक्त भिक्षा लेने वाला
असंसृष्टा, उद्धृता, अल्पलेपा,
संसृष्टा, अवगृहीता, प्रगृहीता और उज्झितधर्मा - इन सात प्रकार की एषणाओं (भिक्षाओं) में से
धृति, अर्थात् धैय। धैर्यवान् जीव रति-अरति से पीड़ित नहीं होता
सात्विक जीव अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों में हर्ष - शोक नहीं
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गच्छ में ही रहकर जिसने प्रतिमाकल्प का आहारादि सम्बन्धी
जो उत्कृष्ट से थोड़ा कम दस पूर्व का ज्ञाता हो और जघन्य से
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