Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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निम्न गति में धकेलता है। जब तक यह अहंकार रहेगा कि मैं महान् हूँ, मैं क्यों वन्दना करूं, तो वह न ज्ञान अर्जन कर सकता है और न केवलज्ञान प्राप्त कर सकता है। बाहुबलि को भी यही अहंकार था। 'मैं बड़ा भाई हूँ, छोटे भाइयों को वन्दन नहीं करूंगा'- यह विचार कर वह ध्यान में स्थित हो गए। बारह मास तक ध्यान किया, किन्तु केवलज्ञान प्राप्त नहीं हुआ, परन्तु ज्यों ही वन्दन करने के लिए चले, केवलज्ञान प्राप्त हो गया। अहंकारी सदा निन्दा का पात्र बनता है, अतः ज्येष्ठ को सदा वन्दना करना चाहिए। यही बात आचार्य हरिभद्र स्थितास्थितकल्पविधि- पंचाशक की पच्चीसवीं गाथा में स्पष्ट करते हैं
वन्दनीय की वन्दना नहीं करने पर अहंकार उत्पन्न होता है। अहंकार से नीच गोत्रकर्म का बंध होता है। इससे अन्य लोगों को ऐसा लगेगा कि जिन-प्रवचन में विनय का उपदेश नहीं दिया गया है। इससे जिन-शासन की निन्दा होगी, अथवा लोग ऐसा कहेंगे कि ये साधु अज्ञानी हैं, ये लोकरूढ़ि का पालन भी नहीं करते हैं। इससे भी जिनशासन की निन्दा होगी। शासन की निन्दा का हेतु होने से ऐसे कर्म बंधते हैं, जिनसे सम्यक् बोधिलाभ नहीं होता है और संसार परिभ्रमण में वृद्धि होती है। व्रत का स्वरूप- पंच-महाव्रत का पालन करना व्रत है। व्रत का अर्थ है- विरति। विरति से तात्पर्य है- रति से विरक्त होना। अन्य अपेक्षा से, विरति का अर्थ हैराग-भाव का तिरोहित होना । हिंसा आदि पांच अव्रतों, अर्थात् पापों से पूर्णतः विरत हो जाना ही महाव्रत है।
आचार्य हरिभद्र स्थितास्थितकल्पविधि-पंचाशक की छब्बीसवीं, सत्ताईसवीं एवं अट्ठाईसवीं गाथाओं में' व्रत के स्वरूप का विवेचन करते हुए इस प्रकार कहते हैं
प्रथम एवं अंतिम तीर्थंकरों के साधुओं के लिए पांच व्रतों वाला चारित्र-धर्म होता है और शेष तीर्थकरों के साधुओं के लिए चार व्रतों का चारित्र-धर्म होता है।
1 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 17/26, 27, 28 - पृ. - 303
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