Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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समाधान- पहली बात यह है कि ऐसी स्थिति में साधु वहाँ नहीं रहे। यदि ऐसी स्थिति भी नहीं है कि साधु वहाँ से विहार कर सकें, तो ऐसी परिस्थिति में संयम-रक्षा के लिए राजपिण्ड ग्रहण कर लेना चाहिए ।
इसी बात का प्रतिपादन आचार्य हरिभद्र ने स्थितास्थितकल्पविधि- पंचाशक की इक्कीसवीं गाथा में किया है
राजपिण्ड लेने से व्याघात, लोभ, एषणाघात, आसक्ति, उपघात और गर्दा आदि दोष लगते हैं। व्याघात- राजकुल में भौगिक, तलवर, माण्डलिक आदि सपरिवार आते-जाते रहते हैं, इसलिए साधुओं को राजकुल में आने-जाने में परेशानी होती है, या विलम्ब होता है, जिससे साधु के दूसरे कार्य रुक जाते हैं। लोभ एवं एषणाघात- राजकुल में अधिक आहार मिलता है, जिससे लोभ बढ़ता है और लोभ से एषणा का घात होता है। आसक्ति- सुंदर शरीर वाले हाथी, घोड़ा, स्त्री, पुरुष आदि को देखने से उनके प्रति आसक्ति होती है, काय-विकार जगता है। उपघात- साधुओं पर जासूसी, चोरी आदि की शंका करके राजा उनको निर्वासन, ताड़न आदि-रूप उपघात कर सकता है। गर्हा- ये साधु राजपिण्ड लेते हैं- इस प्रकार की निंदा होती है। मध्यवर्ती तीर्थंकरों के साधु ऋजु-प्राज्ञ होने के कारण उन दोषों को दूर करने में समर्थ होते हैं, क्योंकि वे सदैव अप्रमत्त होते हैं। प्रथम और अंतिम तीर्थंकरों के साधु उन दोषों को दूर नहीं कर सकते हैं, क्योंकि वे जड़बुद्धि होते हैं। राजपिण्ड के आठ प्रकार-आचार्य हरिभद्र ने स्थितास्थितकल्पविधि-पंचाशक की बाइसवीं गाथा में राजपिण्ड के आठ प्रकार वर्णित किए हैं, जो निम्नलिखित हैं
1 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 17/21 - पृ. - 301
1 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 17/22 - पृ. - 301 2 पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 17/23 - पृ. - 302
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