Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji

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Page 556
________________ उस संघादि के द्वारा ग्राह्य नहीं है, शेष साधुओं द्वारा ग्राह्य है, क्योंकि जिनेश्वरों ने उनके लिए यह मर्यादा रखी है। मूलाचार के अनुसार, जैन मुनि को श्रमण के उद्देश्य से बनाए गए आहार वसति आदि के ग्रहण करने का निषेध है | 2 भगवती–आराधना, प्रश्नव्याकरण, सूत्रकृतांग और उत्तराध्ययन में भी औद्देशिक आहार के ग्रहण में अनेक दोष बताए गए हैं। इसके ग्रहण से त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा की अनुमोदना होती है, अतः औद्देशिक आहार साधु को ग्रहण नहीं करना चाहिए।' डॉ. सागरमल जैन के अनुसार, महावीर के पूर्व तक यह परम्परा थी कि जैन - श्रमण अपने स्वयं के लिए बनाए गए आहार आदि का उपभोग नहीं कर सकता था, लेकिन वह दूसरे श्रमणों के लिए बनाए गए आहार आदि का उपभोग कर सकता था । महावीर ने इस नियम को संशोधित कर किसी भी श्रमण के लिए बने औद्देशिक आहार आदि के ग्रहण को वर्जित माना । 2 शय्यातर पिण्ड का स्वरूप- शय्यातर, अर्थात् स्थान देने वाला दाता तथा पिण्ड, अर्थात् आहार। इस शय्यातर पिण्ड में वसति, अर्थात् ठहरने का स्थान देने वाले के यहाँ से आहार ग्रहण करने का निषेध बताया है। भरत क्षेत्र एवं महाविदेह क्षेत्र में स्थित सभी साधुओं के लिए यह आचार एक समान है। स्थानदाता के यहाँ से भोजन ग्रहण करने से साधु अनेक दोषों का भाजन बन सकता है, जैसे - वसतिदाता को साधु के प्रति रागभाव उत्पन्न होकर अच्छे-अच्छे पदार्थ बनाना, अथवा साधु के प्रति द्वेष का हो जाना, अथवा आहार देना पड़ेगा - यह सोचकर साधुओं को स्थान नहीं देना आदि, अतः साधु द्वारा शय्यातरपिण्ड ग्रहण न करने से साधु को ये दोष नहीं लगते हैं । यही बात आचार्य मूलाचारवृत्ति - 10/18 1 (क) भगवती आराधना वि. टी. - 421 (ख) प्रश्न- व्याकरण - संवरद्वार- 1/5 (ग) सूत्रकृतांग - 1/9/94 (घ) उत्तराध्ययन- म. महावीर - 20/47 2 जैन, बौद्ध और गीता - डॉ. सागरमल जैन - Jain Education International पृ. - 363 For Personal & Private Use Only 536 www.jainelibrary.org

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