Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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उपसम्पदा-सामाचारी से
आत्मसाधना की रुचि
पिण्डविधानविधि
आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण में मुनि-आचार से सम्बंधित जिन पंचाशकों की रचना की है, उनमें से एक पिण्डविधानविधि पंचाशक भी है। इसमें मुख्य रूप से तीन शब्द हैं-पिण्ड, विधान और विधि।
पिण्ड अर्थात् भोजन, आहार। विधान अर्थात् नियम, आचार-संहिता। विधि अर्थात् पद्धति, प्रवृत्ति, रीति, तरीका, ढंग, प्रकार आदि ।
साधु के आहार सम्बन्धी आचार की पद्धति जिसमें है, वह पिण्डविधानविधि है। यदि साधु आहार-शुद्धि का ध्यान रखे, तो विचार एवं आचार की शुद्धि स्वतः हो जाएगी, क्योंकि आहारशुद्धि के साथ आचार-विचार की शुद्धि जुड़ी हुई है। आहार शुद्धि है, तो ही शुद्धाचार है। आहारशुद्धि से व्यवहारशुद्धि होती है तथा व्यवहार पक्ष की शुद्धि से निश्चयपक्ष की शुद्धि होती है। यदि व्यवहार ही शुद्ध नहीं हुआ, तो निश्चय भी शुद्ध कैसे होगा, अतः व्यवहार शुद्ध होने पर ही निश्चय भी शुद्ध होता है।
____ आहार की गवेषणा में शुद्ध आहार न भी मिले, तो साधु क्रोध नहीं करे तथा यही समझे कि मेरे तप में वृद्धि हो रही है और यह तप मेरे लिए कर्म-निर्जरा का हेतु होगा और यही कर्म-निर्जरा मेरी मुक्ति में निमित्तभूत है। इस प्रकार का चिन्तन शुद्ध आहार की प्राप्ति के अभाव में उत्तेजना या चित्त-विक्षोभ पैदा नहीं होने देगा, अतः संयम-यात्रा के निर्वाह हेतु आहार की गवेषणा निर्धारित समय तक बिना क्रोध अवश्य करना चाहिए।
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