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चौथे प्रकार के शल्य में वैद्य व्रण में से शल्य निकालकर, दर्द नहीं हो, इसके लिए थोड़ा खून निकालते हैं। पाँचवें प्रकार के शल्य में वैद्य शल्योद्धार करके, व्रण जल्दी ठीक हो जाए, इसलिए मरीज को चलने आदि की क्रिया करने से मना करते हैं।
छठवें प्रकार के शल्य में चिकित्साशास्त्र के अनुसार पथ्य और अल्प भोजन दे करके, अथवा भोजन का सर्वथा त्याग करवा करके व्रण को सुखाते हैं। सातवें प्रकार के शल्य में शल्योद्धार करने के बाद शल्य से दूषित हुआ मांस, पीब आदि निकाल दिया जाता है।
सर्प, बिच्छू आदि के डंक मारने से हुए व्रण में या वल्मीक-रोग विशेष में उक्त चिकित्सा से व्रण ठीक न हो, तो शेष अंगों की रक्षा के लिए दूषित अंग को हड्डी के साथ काट दिया जाता है। भावव्रण का स्वरूप- भावव्रण का स्वरूप क्या है एवं भावव्रण को समझाने में आवश्यकता का प्रतिपादन आचार्य हरिभद्र प्रायश्चित्तविधि-पंचाशक की चौदहवीं एवं पन्द्रहवीं गाथाओं में इस प्रकार करते हैं
मूलगुणों और उत्तरगुणों को धारण करने वाले और संसार-सागर से तारने वाले उत्तम चारित्र, अर्थात् सम्यक्-चारित्र को धारी श्रेष्ठ पुरुष (साधु) के पृथ्वीकायिक आदि जीवों की विराधना-रूप अतिचार से जो शल्य उत्पन्न होता है, वही 'भावव्रण' कहलाता है। यहाँ प्रायश्चित्त के प्रसंग में उक्त स्वभाव वाले व्रण को उसकी चिकित्सा-विधि सहित जानना चाहिए, क्योंकि अध्यात्म के रहस्य को जानने वाले योगियों की सूक्ष्म बुद्धि से ही उसके रहस्य को अच्छी तरह जाना जा सकता है।
भावव्रण को समझने के पश्चात् उसका निराकरण करना ही बुद्धिमानी है। जिसे यह पता है कि मुझे 'शल्य' या रोग है, फिर वह अवश्य ही किसी योग्य वैद्य से अपनी चिकित्सा कराएगा, इसी प्रकार अपने शल्य अपने को ही ज्ञात हैं, अतः किसी योग्य गुरु (आचार्य) गीतार्थ से शल्य-चिकित्सा करवा लेना ही चाहिए, जिससे सुमरण हो, क्योंकि यह सुमरण ही समाधि का परिचायक है और यह समाधि सिद्धगति का हेतु
पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 16/14, 15 - पृ. - 280
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