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विशिष्ट शुभभाव-रूप प्रायश्चित्त से लाभ- शुभभाव के बिना पूर्वकृत कर्म नष्ट नहीं हो सकते हैं। जब तक पूर्वकृत पाप नष्ट नहीं होते, तब तक जीव शल्य-रहित नहीं बन सकता है तथा शुभभाव, अर्थात् आत्मा की विशुद्धि नहीं हो सकती, अतः विशिष्ट शुभभाव द्वारा किया गया प्रायश्चित्त व्यक्ति को शल्यरहित बना देता है, पाप के भार से हल्का बना देता है, सरल बना देता है, मोक्ष की ओर ले जाता है। विशिष्ट शुभभाव का प्रभाव ही कर्म का अभाव कर मुक्ति को प्रदान करता है। इन शुभभावों के प्रभाव का आचार्य हरिभद्र ने प्रायश्चित्तविधि-पंचाशक की चौंतीसवीं एवं पैंतीसवीं गाथाओं में प्रतिपादन किया है।
विशिष्ट शुभभाव के द्वारा अशुभभाव से बंधे हुए कर्मों का नाश होता है, अथवा अशुभभाव से बंधे हुए कर्मों के अनुबन्ध का विच्छेद होता है, क्योंकि शुभभाव से अपूर्वकरण नामक आठवाँ गुणस्थान प्राप्त होता है और कर्मो की निर्जरा से उपशमश्रेणी
और फिर क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होकर अन्त में जीव अनुत्तर सुखरूप निर्वाण को प्राप्त करता है। विशेष- अपूर्वकरण-गुणस्थान में कभी न हुए हों- ऐसे विशिष्ट शुभभाव होते हैं, जिससे दुष्कर्मों की स्थिति का घात आदि होता है। शास्त्रों में उपशमश्रेणी का फल अनुत्तर देवलोक का सुख और क्षपकश्रेणी का फल मोक्ष का सुख बतलाया गया है।
आगम में 'तवसा तु निकाइयाणंपि' (तप से तो निकाचित कर्मों का भी नाश होता है)- जो यह कहा गया है, वह भी इस प्रकार के विशिष्ट शुभभाव से अपूर्वकरण
और श्रेणी-आरोहण के द्वारा ही घटित होता है। यह विशिष्ट शुभभाव-रूप प्रायश्चित्त निकाचित कर्मों के भी क्षय का कारण होने से सामान्य अशुभकर्मों के क्षय और उनके अनुबन्ध के विच्छेद का कारण तो है ही, ऐसा विचार करना चाहिए। निकाचित कर्म का अर्थ है- कर्मों का निबिड़ (सघन) रूप से बन्धन ।
आगम में कहे गए अनुष्ठान प्रायश्चित्त-योग्य नहीं हैं, अर्थात् आगम में जो अनुष्ठान बतलाए गए हैं, उनके लिए प्रायश्चित्त का विधान नहीं है, क्योंकि जो साधक
1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 16/34, 35 - पृ. - 287
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