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शास्त्रोक्त अर्थ की विराधना से प्रायः पाप लगता है, इसलिए शास्त्र के मुख्य अर्थ को भंग करके किया जाने वाला विशुद्धि रूप प्रायश्चित्त भी पापरूप ही होता है - ऐसा बुद्धिमान् व्यक्ति को जानना चाहिए ।
विशेष
अप्रमत्त-अवस्था में यदि हिंसा हो जाए, तो पाप नहीं लगता है, इसलिए
यहाँ प्रायः शब्द का उपयोग किया गया है ।
दोष का जो निमित्त होता है, उसके सेवन से ही दोष होता है, दोष का नाश नहीं। यह बात लोक में भी रोगादि के दृष्टान्त से प्रसिद्ध है । जिस प्रकार रोग के कारणों का सेवन करने से रोग बढ़ता है, उसका नाश नहीं होता है, उसी प्रकार शास्त्रोक्त नियमों की विराधना करने से पाप बढ़ता है, पाप का नाश नहीं होता है।
आचार्य हरिभद्र ने प्रायश्चित्तविधि - पंचाशक की सातवीं से लेकर तेरहवीं तक की गाथाओं मेँ कौन - सा प्रायश्चित्त किसके तुल्य है, इसका विवरण करते हुए भद्रबाहु स्वामी द्वारा कथित प्रसंग का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है
शरीर में तद्भव और आगन्तुक - ये दो प्रकार के व्रण होते हैं । तद्भव, अर्थात् शरीर से उत्पन्न, यथा- गाँठ आदि । आगन्तुक, अर्थात् कांटा आदि लगने से हुआ व्रण | इसमें आगन्तुक-व्रण का शल्योद्धरण किया जाता है, तद्भव - व्रण का नहीं ।
जो शल्य पतला हो, तीक्ष्ण मुखवाला न हो, अर्थात् शरीर के बहुत अन्दर तक न गया हो, खूनवाला न हो, केवल त्वचा से ही लगा हुआ हो, उस शल्य, अर्थात् कांटे आदि को बाहर खींच लिया जाता है, उस व्रण का मर्दन नहीं किया जाता है। जो शल्य शरीर में प्रथम प्रकार के शल्य से थोड़ा अधिक लगा हो, किन्तु गहरा न हो, ऐसे शल्य के दूसरे प्रकार में कांटे को खींच लिया जाता है और व्रण का मर्दन किया जाता है, किन्तु उसमें कर्णमल नहीं भरा जाता। इससे थोड़ा अधिक गहरा हुए तीसरे प्रका शल्य में शल्योद्धार, व्रणमर्दन और कर्णमलपूरणं- ये तीनों ही किए
जाते हैं।
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