Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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वाले तत्प्रसिद्ध सूत्रों से चित्त को भवभययुक्त बनाकर, अथवा मोक्षाभिमुख (संवेग प्रधान) बनाकर आलोचना करना चाहिए।
इसी प्रकार, गुरु भी शल्य (पापानुष्ठान) का उद्धार न करने से होने वाले दुष्ट परिणामों और करने से होने वाले लाभों को दिखाकर तथा तत्प्रसिद्ध सूत्रों से शिष्य के चित्त को संविग्न बनाकर उससे आलोचना कराएं। शल्य के लक्षण- शल्य की पहचान यही है कि अपने अपराध को गुरु के समक्ष नहीं कहना। कोई बात बनाकर उसे अस्पष्ट रूप से कह देना- इसे ही शल्य कहते हैं। आचार्य हरिभद्र ने आलोचनाविधि पंचाशक की छत्तीसवीं गाथा में शल्य के लक्षण का प्रतिपादन किया है। वे लिखते हैं
गीतार्थ के समक्ष अपने दुष्कृत्य का भावपूर्वक प्रकाशन नहीं करना भावशल्य है- ऐसा वीतरागों ने कहा है। शल्यों को न निकालने का परिणाम- यदि हृदय से शल्यों को निकाला नहीं गया, तो परिणाम दुःखद होते हैं। जैसे पाँव में कांटा लग गया और नहीं निकाला गया, तो उसका परिणाम कितना दुःखद होता है, यह स्वयं ही अनुमान लगा सकते हैं, इसी प्रकार यदि हृदय में रहे हुए भूलों-रूपी शल्यों की चिकित्सा नहीं की गई, तो फिर कितनी दुःखद स्थिति उत्पन्न होगी ? इस बात को निम्न उदाहरण से समझ सकते हैं।
लक्ष्मणा साध्वी ने उत्सूत्र-प्ररूपणा की कि प्रासुक जल रोग का कारण है। यह कहने के बाद उन्होंने इसकी आलोचना नहीं की, अंतिम समय तक भी आलोचना नहीं की, जिससे शल्य को लेकर ही मरण प्राप्त किया और परिणामस्वरूप अनन्त दुःखों को प्राप्त किया। इसी बात को स्पष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र आलोचनाविधि पंचाशक की सैंतीसवीं एवं अड़तीसवीं गाथाओं में लिखते हैं
खड्गादि शस्त्र, विष, अविधि से साधित पिशाच, अविधि से प्रयुक्त शतघ्नी आदि यन्त्र, अथवा छेड़ने से क्रोधित बना हुआ सर्प जो नुकसान नहीं करता, उसे बड़ा
पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 15/36 – पृ. - 271
' पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 15/37, 38 – पृ. - 271 2 ओघनियुक्ति – भद्रबाहुस्वामी- 803-804
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