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आचार्य हरिभद्र पंचाशक - प्रकरण के अन्तर्गत आलोचनाविधि - पंचाशक की सैंतालीसवीं गाथा में स्पष्ट करते हैं
जिस प्रकार बालक अपनी माता के समक्ष बोलते हुए कार्य - अकार्य को छिपाए बिना जैसा होता है, वैसा ही कह देता है, उसी प्रकार साधु को माया और मद से मुक्त होकर अपने अपराध को यथातथ्य गुरु के समक्ष निवेदन कर देना चाहिए, क्योंकि माया और मद से युक्त साधु सम्यक् आलोचना नहीं कर सकता है।
सम्यक आलोचना के लक्षण जिस साधु ने अपराध किया है, वह उन अपराधों की आलोचना को सम्यक् प्रकार से पूर्ण करता है और भविष्य में अपराधों को जीवन में नहीं दोहराता है, तो यही आलोचना के सम्यक् लक्षण हैं। इसी बात का समर्थन करते हुए आचार्य हरिभद्र आलोचनाविधि - पंचाशक की अड़तालीसवीं गाथा में स्पष्ट करते हैं
सिद्धान्त के जानने वाले सम्यक् आलोचना का लक्षण इस प्रकार बतलाते
गुरु ने अपराध की शुद्धि हेतू जो दण्ड दिया हो, उसे स्वीकार कर यथावत् पूरा करना चाहिए, अर्थात् प्रायश्चित्त करना चाहिए और जिन दोषों की आलोचना की हो, उन दोषों को फिर से नहीं करना चाहिए ।
कौन सी आलोचना शुद्ध करने वाली होती है- उसी व्यक्ति की आलोचना आत्मा को शुद्ध करती है, जो जिनाज्ञा का पालन करने वाला है, सरल है, स्थितप्रज्ञ है । इसी विषय का प्रतिपादन आचार्य हरिभद्र ने आलोचनाविधि - पंचाशक की उन्पचासवीं गाथा में किया है
जो संवेगप्रधान हैं, जिनाज्ञा में लीन हैं, उनके लिए यह आलोचना प्रमत्त-संयत आदि गुणस्थानों में शुद्धि को उत्पन्न करती है। इसके विपरीत, जो संवेग
पंचाशक - प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 15/48 - पृ. 274
पंचाशक- प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 15/49 - पृ. – 274
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