Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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अपने भावशल्य को दूसरों को बतलाया नहीं है, उसके लिए चारित्र-रूप शरीर में स्थित अतिचार-रूप फोड़ा भी अनन्त जन्म-मरण का कारण होने से अनिष्टकारका ही है, क्योंकि परमार्थ से उसका उद्धार नहीं हुआ है। दूसरों को अपने शल्य (दोष) के विषय में बतलाना ही शल्योद्धार है।
प्रश्न उपस्थित हुआ कि गीतार्थ के अभाव में आलोचना कैसे करना चाहिए। इसे आचार्य हरिभद्र ने आलोचनाविधि-पंचाशक की एकतालीसवीं गाथा में स्पष्ट किया है। वे लिखते हैं
शल्योद्धार के द्वारा निमित्त गीतार्थ की खोज उत्कृ टतापूर्वक, क्षेत्र की दृष्टि से सात सौ योजन तक और काल की दृष्टि से बारह वर्ष तक करना चाहिए।
ओघनियुक्तिटीका के अनुसार, सामान्यतः आलोचना आचार्य के पास ही करें। आचार्य का योग न हो, तो गीतार्थ मुनि की खोज कर उसके पास आलोचना करें। गीतार्थ साधु के अभाव में सिद्धों की साक्षी से आलोचना करने का विधान है।
व्यवहारसूत्र के अनुसार, आचार्य, उपाध्याय, बहुश्रुत साधर्मिक साधु, बहुश्रुत, अन्य सांभोगिक-बहुश्रुत, साधु, सारूपिक, बहुश्रुत साधु, पश्चात्कृत् श्रमणोपासक, सम्यक् भावित चैत्य, अर्हत्, सिद्ध, इस प्रकार क्रमशः एक के अभाव में दूसरे के पास आलोचना करना विहित है।
आलोचना करने के पूर्व मन में इस प्रकार का संकल्प करना चाहिए कि मैं सम्यक रूप से आलोचना करूंगा, अपने भीतर रहे शल्यों को पूर्णतः दूर करूंगा, अर्थात् अपने सम्पूर्ण अपराधों को गुरु के समक्ष प्रकट कर दूंगा, जिससे मैं पूर्णतः निशल्य बन जाऊंगा और निशल्य होने पर मेरे द्वारा की गई आलोचना सार्थक व सफल हो जाएगी।
- पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 15/41 - पृ. - 272
ओघनियुक्ति - भद्रबाहुस्वामी- 790 - पृ. - 225 आचार्याय आलोचयति तदभावो सर्वदेशेषु निरुपयित्वा गीतार्थायालोचयितव्यं एवं तावद्यावत्सिद्धानामप्यालोच्यते-साधूनामभावे । 'व्यवहार-सूत्र- 1/3
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