Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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नुकसान पंडितमरण (अनशन) के समय उद्धरित नहीं किए गए भावशल्य करते हैं। पंडितमरण के समय भावशल्य का उद्धार न करने से भावी जीवन में बोधिलाभ, अर्थात् धर्मप्राप्ति दुर्लभ बनती है और आत्मा अनन्त संसारी होता है। ओघनियुक्ति के अनुसार
शस्त्र, विष, दुःसाधित वेताल, दुष्प्रयुक्त यन्त्र और क्रुद्ध सर्प उतना कष्टदायक नहीं होता, जितना मायायुक्त भावशल्य ।
अनशनकाल में सशल्य मरने वाला व्यक्ति दुर्लभ बोधि और अनन्त संसारी हो जाता है।
__ शल्य को दूर करने के लिए जो विधि है, उसका ही प्रयोग करना चाहिए, क्योंकि अविधि से शल्य दूर नहीं होते हैं। विधिपूर्वक की गई आलोचना से ही शल्य दूर होते हैं, अन्यथा अविधि से कितनी भी आलोचना करें, परन्तु शल्य दूर नहीं होता है। पानी को कितना भी बिलोया जाए, परन्तु मक्खन प्राप्त नहीं होगा ? मक्खन को पाने के लिए तो दही को ही बिलोना पड़ेगा, इसी प्रकार आलोचना आचार्य की साक्षी, अथवा गुरु की साक्षी से ही करना चाहिए। आलोचना हेतू यदि इनका संयोग नहीं मिले, तो अरिहंत सिद्ध की साक्षी से आलोचना करें, परन्तु गुरु आदि के बिना किसी अन्य से, अथवा स्वयं से ही आलोचना करना अविधि-आलोचना है तथा इस अविधि-आलोचना से कभी भी शुद्धि नहीं हो सकती है। इसी विषय का प्रतिपादन आचार्य हरिभद्र ने आलोचनाविधि-पंचाशक की उनचालीसवीं एवं चालीसवीं गाथाओं में किया है।
____ जो गुरु के समक्ष आलोचना किए बिना अपने-आप (अपनी कल्पना से) शुद्ध करते हैं और जो दूसरे गीतार्थ के होने पर भी लज्जा आदि के कारण स्वयं ही आलोचना करके प्रायश्चित्त आदि ग्रहण करते हुए शुद्धि करते हैं, उन्हें भी भगवान जिनेन्द्र देव के भावशल्य सहित कहा हैं।
जिस प्रकार व्रण-चिकित्सा (फोड़ा-फुसी की चिकित्सा) को सम्पूर्णतया जानने वाला यदि शरीर में रहे हुए खराब मवाद आदि वाले फोड़े को बढने दे और दूर न करे, तो वह फोड़ा मृत्यु का कारण होने से अनिष्टकारी होता है, उसी प्रकार जिसने
' पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 15/39, 40 – पृ. - 271, 272
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