Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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अर्थात् वैराग्यप्रधान नहीं हैं और जिनाज्ञा में भी नहीं रहते हैं, उनके लिए यह आलोचना भी विपरीत फलवाली होती है। उपसंहार- आलोचनाविधि-पंचाशक में वर्णित आलोचनाविधि के महत्व को, परिणाम को समझकर सम्यक् आचरण करना चाहिए, क्योंकि दुर्लभ मानव-भव को सार्थक करने के लिए एवं मोक्ष के सुख को प्राप्त करने के लिए सम्यक् आलोचनाविधि आवश्यक है। विधिपूर्वक की गई आलोचना ही जीव को निरन्तर मोक्ष के निकट ले जाती है। आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण के अन्तर्गत आलोचनाविधि-पंचाशक की अन्तिम पचासवीं गाथा में जिस साररूप तथ्य को उजागर किया है, वह इस प्रकार है
दुर्लभ मनुष्यत्व प्राप्त करके और दुष्कृत्यों के कारणभूत मनोभावों का त्याग करके मुमुक्षुओं की मनोवृत्ति-रूप लोकोत्तमसंज्ञा में निरन्तर प्रयत्न करना चाहिए, क्योंकि निर्वाण-रूपी सुख की प्राप्ति का यही एकमात्र उपाय है।
आज के कई लोग तर्क करते हैं कि यदि असमय (अकाल) में पढ़ेंगे, तो क्या होगा ? असमय में पढ़ेंगे, तो क्या पागल हो जाएंगे। उदाहरणार्थ- गाड़ी बारह बजे की है और एक बजे पहुँचेगी, तो क्या होगा ? किसी रोगी की हालत गम्भीर है और चिकित्सक के पास देरी से पहुँचेंगे, तो क्या होगा ?
घनघोर वर्षा हो रही है, पानी घर में आ रहा है, एक घण्टे बाद दरवाजे बंद करेंगे, तो क्या होगा ? घर में आग लग गई, समय पर आग बुझाने का उपाय नहीं किया गया, तो क्या होगा, अर्थात्- समय पर जो कार्य करने का है, वह नहीं किया, तो कोई भी अनिष्ट हो सकता है, अतः समय का कार्य समय पर ही करना चाहिए, जिससे किसी भी प्रकार का उपद्रव (अनिष्ट) न हो।
प्रायश्चित्तविधि प्रायश्चित्त- दोष-शुद्धि का निमित्त (कारण) आलोचना- गुरु के सम्मुख अपने दोषों का प्रकाशन करना 'आलोचना' है।
पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 15/50 - पृ. - 275
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