Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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आचार्य हरिभद्र ने शीलांगविधानविधि पंचाशक की तीसवीं तथा एकतीसवीं गाथाओं में भावसाधु की चर्चा करते हुए सुवर्ण का उदाहरण देते हुए इसी का समर्थन किया है
शील दुर्धर होता है- पूर्वाचार्यों ने ऐसा कहा है।
आगमोक्त गुणों से युक्त साधु ही साधु है। आगमोक्त गुणों से रहित साधु साधु नहीं है। इसे सुवर्ण के दृष्टान्त से समझना चाहिए, अर्थात् जिस प्रकार सुवर्ण के गुणों से रहित सुवर्ण वास्तविक सुवर्ण नहीं है, उसी प्रकार साधु के गुणों से रहित साधु वास्तविक साधु नहीं है।
आचार्य हरिभद्र ने शीलांगविधानविधि-पंचाशक की बत्तीसवीं गाथा में स्वर्ण के गुणों का वर्णन किया है, जो इस प्रकार है(1) 1. विषधाती-विषनाशक 2. रसायन- वृद्धावस्था को प्रतीत नहीं होने देने वाला 3. मंगलकारी 4. विनीत- कंगनादि आभूषण बनाने के लिए अपेक्षित लचीलापन 5. प्रदक्षिणावर्त्त- अग्निताप से दाहिनी ओर गोल घूमने वाला 6. गुरुक-भारयुक्त 7. अदाह्य- जो अग्नि से जल न सके 8. अकुत्स्य- दुर्गन्धरहित- ये आठ गुण स्वर्ण में होते हैं।
आचार्य हरिभद्र शीलांगविधानविधि पंचाशक की बत्तीसवीं गाथा में दिए स्वर्ण के गुणों के अनुसार साधु में भी इसी प्रकार के गुणों को घटित करते हुए तैंतीसवीं एवं चौंतीसवीं गाथा में बताते हैं कि साधु आठ गुणों से सुशोभित होते हैं। साधु स्वर्ण की तरह गुणों से सुशोभित होते हैं।
साधु स्वर्ण की तरह विषघाती हैं, अर्थात् क्रोध, मान, माया, मोह आदि विष को नाश करने वाले होते हैं। (2) साधु स्वर्ण की तरह रसायनयुक्त हैं, अर्थात् मोक्षमार्ग का उपदेश देकर अजर-अमर बनाते हैं, जिससे सदा स्व-स्वरूप में स्थित हो जाते हैं।
पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 14/32 - पृ. - 250 3 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 14/33, 34 - पृ. - 250
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