Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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प्राप्त कर लेते हैं। आचार्य हरिभद्र शीलांगविधानविधि - पंचाशक की छियालीसवीं गाथा में इसी बात का प्रतिपादन करते हैं
सम्पूर्ण शिलांगों से युक्त शुभ अध्यवसाय वाले साधु ही सांसारिक - दुःख का अन्त (नाश) करते हैं, अन्य द्रव्यलिंगी ( शुभ अध्यवसायरहित केवल साधुवेश धारण करने वाले) साधु नहीं - ऐसा जिनेन्द्र देवों ने कहा है ।
संयम-ग्रहण करके साधु भावसाधु बनकर मोक्ष को प्राप्त कर लेता है, परन्तु द्रव्यलिंगी बाह्य - क्रिया का त्याग करके संयम को धारण करता है तथा द्रव्य - क्रिया पर भी बहुत ध्यान रखता है, फिर भी क्रियाबल से दुःख का नाश नहीं कर पाता है। ऐसी क्रिया से वह स्वर्ग का सुख तो प्राप्त कर लेता है, परन्तु मोक्ष का सुख नहीं प्राप्त करता है, क्योंकि उसने संयम तो बहुत बार लिया होगा, परन्तु वह सम्पूर्ण रूप से शीलांगयुक्त नहीं हुआ, इसी कारण से संसार में परिभ्रमण श्रीमद्देवचन्द्र ने उपदेशिक - भजन में इस प्रकार कहा है
करता है।
बाह्य क्रिया सब त्याग परिग्रह, द्रव्यलिंग धर लीनो । देवचन्द्र कहे या विध तो हम बहुत बार कर लीनो ।। 2 इसी बात का वर्णन करते हुए आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक - प्रकरण के अन्तर्गत शीलांगविधानविधि - पंचाशक की सैंतालीसवीं से उनपचासवीं तक की गाथाओं में कहा है
मुनिधर्म पालनरूप सम्पूर्ण क्रिया भी सम्यक्त्व आदि प्रशस्त भावों के अभाव में सम्यक्क्रिया नहीं बनती है, क्योंकि वह क्रिया मोक्षरूपी फल से रहित है। इससे ग्रैवेयक में उपपात (उत्पत्ति) तो सम्भव है, किन्तु मुक्ति नहीं, अर्थात् ग्रैवेयक में उत्पत्तिरूप मोक्षफलरहित क्रिया परमार्थ से क्रिया नहीं है, क्योंकि उससे मोक्ष नहीं मिलता है। इससे यह सिद्ध होता है कि ग्रैवेयक में उत्पत्ति संसार - परिभ्रमण की ही हेतु है, मोक्ष की नहीं ।
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पंचाशक - प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 14/46
पृ. - 254
2 पंचप्रतिक्रमण - श्रीमद् देवचन्द्र - श्री समकित की सज्झाय - पृ. - 358
3 पंचाशक - प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 14/47, 48, 49- पृ.
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