Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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आलोचना का काल
आचार्य हरिभद्र ने आप्तपुरुषों एवं भद्रबाहुस्वामी द्वारा कथित आलोचना के काल का विवरण आलोचनाविधि पंचाशक की नवमीं से ग्यारहवीं तक की
गाथाओं में' किया है, जो इस प्रकार है
जिनेन्द्र देव ने इस आलोचना का काल पक्ष (पन्द्रह दिन), चार महीना आदि कहा है। पूर्वाचार्य भद्रबाहु आदि ने भी इसे इसी प्रकार कहा है ।
सामान्य आलोचना तो प्रतिदिन प्रतिक्रमण में सुबह-शाम की जाती है, पक्षादि काल प्रायः विशेष आलोचना का है। कोई विशिष्ट अपराध हुआ हो, तो उसकी उसी समयविशेष में ही आलोचना कर लेना चाहिए। बीमारी से उठा हो, या लम्बा विहार किया हो, तो इन कारणों से पक्षादि में भी आलोचना की जा सकती है, इसलिए यहाँ प्रायः कहा गया है। पूर्णिमा या अमावस्यारूप पाक्षिकपर्व या चातुर्मासपर्व में आलोचना अवश्य करना चाहिए तथा पहले लिए गए अभिग्रहों (प्रत्याख्यानों) को गुरु से निवेदन करके नए अभिग्रहों को ग्रहण करना चाहिए ।
अतिचार न लगा हो, तो भी ओघ, अर्थात् सामान्य रूप से पाक्षिकादि में पूर्वमुनियों ने आलोचना की है, अतः पाक्षिकादि में आलोचना करना जिनाज्ञा है। जिस प्रकार जल का घड़ा प्रतिदिन साफ करने पर भी उसमें थोड़ी गन्दगी रह जाती है, अथवा घर को प्रतिदिन साफ करने पर भी उसमें थोड़ी धूल रह जाती है, उसी प्रकार संयम में प्रयत्नशील साधक को विस्मरण और प्रमाद के कारण अतिचार लगना सम्भव है, इसलिए उपर्युक्त कारणों से पाक्षिकादि पर्वों में आलोचना अवश्य करना चाहिए ।
आठवीं गाथा में वर्णित आलोचना करने की विधि के अनुसार पाँच द्वारों का क्रमशः विशेष विवेचन आचार्य हरिभद्र ने आलोचनाविधि पंचाशक की बारहवीं से लेकर इक्कीसवीं तक की गाथाओं में किया है, जो इस प्रकार है
1 पंचाशक - प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 15 / 9, 10, 11 - पृ. - 259, 260 2 पंचाशक - प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 15/12 से 21 पृ. - 260-264
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