Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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आलोचना से होने वाला लाभ
उत्तराध्ययन के अनुसार, आलोचना से जीव अनन्त संसार को बढ़ाने वाले, मोक्षमार्ग में विघ्न उत्पन्न करने वाले, माया, निदान तथा मिथ्यादर्शन शल्य को निकाल फेंकता है और ऋजुभाव को प्राप्त होता है । वह अमायी होता है, इसलिए वह स्त्रीवेद और नंपुसकवेद का कर्मबन्ध नहीं करता और यदि वे बन्ध पहले हुए हों, तो उनका क्षय कर देता है । '
• ओघनिर्युक्ति के अनुसार, जैसे भारवाहक भार को नीचे उतारकर हल्केपन का अनुभव करता है, वैसे ही गुरु के समक्ष आलोचना तथा निन्दा कर निःशल्य बना साधक अतिरिक्त हल्केपन का अनुभव करता है। 2
विधिरहित आलोचना से विशुद्धि नहीं- यदि साधक विधिरहित अर्थात् अविधि से आलोचना करता है, तो वह सफलता को प्राप्त नहीं करता है । जिस प्रकार रसोई बनाने वाला सब्जी, मिठाई आदि को विधिपूर्वक नहीं बनाए, तो वह सफल रसोइया नहीं कहलाएगा, उसी प्रकार आलोचना करने वाला विधिपूर्वक आलोचनाविधि नहीं करे, तो उसकी आलोचना सफल नहीं होगी। इसी बात को स्पष्ट करते हुए आचार्य हरिभद्र आलोचनाविधि पंचाशक की पांचवीं, छठवीं एवं सातवीं गाथाओं में कहते हैं
विधिपूर्वक आलोचना नहीं करने पर चित्त - विशुद्धि नहीं होती है और उसके अभाव में आलोचना उसी प्रकार निष्फल या अनर्थकारी होती है, जिस प्रकार कुवैद्य यदि रोगचिकित्सा करे, अथवा अविधि से विद्या की साधना की जाए, तो वह निष्फल होती है। कदाचित् वह चिकित्सा या साधना सफल भी हो सकती है, किन्तु विधिरहित आलोचना से कभी भी सिद्धि नहीं मिलती है, क्योंकि अविधिपूर्वक आलोचना करने पर जिन-आज्ञा का भंग होता है ।
तीर्थंकरों की आज्ञा का विधिपूर्वक एवं भावसहित पालन करना चाहिए । उनकी आज्ञा का पालन विधिवत् नहीं करने पर मोहवश चित्त अत्यधिक संक्लेश अर्थात् मलिनता को प्राप्त होता है।
1 उत्तराध्ययन- म. महावीर - 29/5
2 ओघनियुक्ति - भद्रबाहुस्वामी - 806
3 पंचाशक - प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 15 / 5, 6, 7 - पृ. सं. - 258
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