________________
यह इस प्रकार है- सम्यग्दर्शन से रहित केवल बाह्याचार का पालन करके जीव ने अनेक बार ग्रैवेयक-विमानों में जन्म लेकर शरीर छोड़े हैं। बाह्यतः साधु-आचार का पालन करते हुए ग्रैवेयक-विमानों में उत्पन्न हो जाना पर्याप्त नहीं है, क्योंकि मिथ्यादृष्टि भी यह सब तो प्राप्त कर ही लेता है। इससे यह सिद्ध होता है कि भावरहित साधु-आचार का पालन जीव ने अनन्त बार किया है, तभी तो उसने ग्रैवेयक-विमानों में उत्पन्न होकर अनन्त बार उन देव-शरीरों को छोड़ा है, फिर भी उसे मोक्ष के कारणभूत सम्यक्त्व की प्राप्ति नहीं होने से मोक्ष प्राप्त नहीं हुआ। यदि सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई होती, तो अनन्त बार साधुजीवन की प्राप्ति और अनन्त बार ग्रैवेयक-विमानों में उत्पत्ति नहीं होती। इन्हीं कारणों से सम्यक्त्व आदि शुद्ध भावों से रहित (प्रशस्तभाव) निरर्थक क्रिया बुद्धिमानों को अभिमत नहीं है। प्रस्तुत प्रकरण का उपसंहार- प्रस्तुत प्रकरण में शीलांग के विषय की गहन जानकारी प्रस्तुत की गई है। यदि बुद्धिमान् साधु शीलांग के गुणों को जानकर पूर्णतः आत्मसात् करता है, तो वह संसार की सन्तति-परम्परा का शीघ्र ही विच्छेद करता है, अतः साधु की भावपूर्ण क्रिया ही शीलांग की पूर्णता है। इस विषय में आचार्य हरिभद्र पंचाशक-प्रकरण के अन्तर्गत शीलांगविधानविधि-पंचाशक की अन्तिम पचासवीं गाथा में यह स्पष्ट करते हैं
इस प्रकार, विशिष्ट लोगों को स्वविवेकपूर्वक उक्त प्रकार से विचार करके संसार-सागर से मुक्त होने के लिए भावयुक्त क्रिया करना चाहिए।
आलोचनाविधि आचार्य हरिभद्र पंचाशक-प्रकरण के अन्तर्गत आलोचनाविधि-पंचाशक में आलोचना आदि के अर्थ, विधि आदि का प्रतिपादन करने के पूर्व प्रस्तुत विधि की प्रथम गाथा में अपने आराध्य के चरणों में नमस्कार करते हुए कहते हैं
1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 14/50 - पृ. - 256 2 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 15/1 - पृ. - 257
492
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org