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वह अतिचार को सरलता से जान लेता है, अतः हम ज्ञान - दर्शन आदि के आचार को
समझेंगे ।
आचार्य हरिभद्र ने आलोचनाविधि - पंचाशक के अन्तर्गत तेईसवीं गाथा से लेकर सत्ताईसवीं तक की गाथाओं में ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और वीर्याचार के भेदों का क्रमशः विवरण किया है, जो इस प्रकार है
ज्ञानाचार के काल :
1. काल
अंग-प्रविष्ट, अनंग-प्रविष्ट आदि आगमों को पढ़ने का जो समय है, उसी समय उन आगमों का अध्ययन करना काल - सम्बन्धी ज्ञानाचार है। समय पर किया गया काम लाभदायी होता है, जैसे- समय पर की गई खेती, अन्यथा पूरा वर्ष दुःखदायी हो जाता है।
2. विनय
विनय करना ।
ज्ञान, ज्ञानी एवं ज्ञान
2 पंचाशक - प्रकरण -
साधन पुस्तक आदि का उपचार - रूप से
3. बहुमान
हुए पढ़ना ।
4. उपधान
सूत्रादि का तपपूर्वक अध्ययन करना उपधान है ।
5. अनिह्नव- किससे पढ़ रहें हैं ? क्या पढ़ रहे हैं ? कितना पाठ याद हो गया ?
आदि तथ्यों को न छुपाते हुए पढ़ना अनिह्नव है ।
6. व्यंजन
7. 312f
8. तदुभय
लिखना ।
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ज्ञान, ज्ञानी और ज्ञान के उपकरण पुस्तक आदि के प्रति बहुमान रखते
जिस सूत्र, अर्थ आदि के अध्ययन के लिए जो तप बताया गया है, उन
यहाँ ज्ञानाचार का तात्पर्य इस प्रकार से है- ज्ञान की आराधना करने वालों के ज्ञान-साधना सम्बन्धी व्यवहार ज्ञानाचार कहे जाते हैं ।
सूत्र व अक्षर जिस रूप में हो, उसी रूप में सम्यक् प्रकार से पढ़ना । सूत्रादि का जो अर्थ है, उसका सम्यक् अर्थ करते हुए पढ़ना ।
सूत्र और अर्थ - इन दोनों को सम्यक् प्रकार से पढ़ना, बोलना एवं
आचार्य हरिभद्रसूरि - 15 / 23, 27 - पृ.. - 265,266
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