Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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वीर्याचार के भेद- जो जीव बल और वीर्य को छिपाए बिना आगम के अनुसार धर्मक्रिया में प्रवृत्ति करता है और शक्ति का उल्लंघन किए बिना आत्मा को धर्मक्रिया में जोड़ता है, वह जीव वीर्याचार है। ( यहाँ भी जीव और आचार के अभेद से जीव को ही आचार कहा गया है।)
पाँच प्रकार के आचारों में ज्ञात-अज्ञात में मलिनता आ गई हो, तो उन अतिचारों की शुद्धि कर लेना चाहिए एवं संकल्प करना चाहिए कि मुझसे अतीत में जो भूल हो गई हों, वे भूल भविष्य में भी नहीं करूंगा, उनके लिए वर्तमान में सजगता रखूगा। यही जीवन की सावधानी है।
___ इसी बात का समर्थन करते हुए आचार्य हरिभद्र आलोचनाविधि-पंचाशक की अट्ठाईसवीं गाथा में स्पष्ट करते हैं
उक्त पाँच प्रकार के आचारों में अकाल-पठन, वाचनादाताओं के प्रति अविनय आदि सूक्ष्म और स्थूल- जो भी अतिचार लगे हों, उन सबकी मैं ऐसी गलती फिर से नहीं करूंगा- ऐसा परिणाम वाला बनकर संवेगपूर्वक (संसार से भयभीत होकर) आलोचना करना चाहिए। अतिचारों का अन्य तरह से निर्देश- मूलगुण एवं उत्तरगुणों में अतिचार लगते हैं, अतः इनमें लगे अतिचारों की भी आलोचना होना चाहिए। आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण के अन्तर्गत् आलोचनाविधि-पंचाशक की उनतीसवीं गाथा में इसी विषय का प्रतिपादन किया है, जो इस प्रकार है
महाव्रत आदि मूलगुणों और पिण्डविशुद्धि आदि उत्तरगुणों सम्बन्धी जो अतिचार है, उनकी उपर्युक्त प्रकार से आलोचना करना चाहिए।
1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-15/28 - पृ.- 267
पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-15/29 - पृ. - 268 3 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 15/30 से 34 - पृ. - 268, 269
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