Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
View full book text
________________
( 3 ) स्वर्ण की तरह साधु भी मंगलकारी हैं, अर्थात् अपने गुणों से वे सभी के लिए मंगलमय है। उनका आना, उनका बोलना सभी के लिए मंगल ही करता है।
(4) विनीत- स्वर्ण की तरह साधु को विनीत बताया है कि साधु स्वभाव से विनीत होते हैं, अर्थात् भूल हो या नहीं, लेकिन यदि गुरु, स्थविर, गृहस्थ आदि साधु को उपालम्भ के रूप में भी कुछ कह दें, तो भी वे नम्र ही रहते हैं ।
(5) प्रदक्षिणावर्त्त - तात्त्विक मार्गानुसारी, अर्थात् वास्तविक मार्ग ( यथार्थ - मार्ग) का अनुसरण करने वाले होते हैं।
(6) गुरुक- वे गम्भीर होते हैं, अर्थात् किसी की भी गुप्त बात को, भूल को, अपराधों को किसी के सामने प्रकट नहीं करते हैं ।
(7) अदाय - क्रोध की भयंकर आग जिसे जला नहीं सकती, अर्थात् क्रोध की आग में भी वे सदा समता - रस से युक्त रहते हैं ।
(8) अकुत्स्य - स्वर्ण की तरह दुर्गन्धरहित, अर्थात् दुर्गुण - रूपी दुर्गन्ध से रहित एवं सदा शीलरूपी सुगन्ध वाले होते हैं।
उपर्युक्त विषय की योजना का प्रतिपादन आचार्य हरिभद्र शीलांगविधानविधि पंचाशक की पैंतीसवीं गाथा में करते हुए लिखते हैं
सुवर्ण के विषघाती आदि गुण तात्त्विक रूप से साधु में भी होते हैं, क्योंकि प्रायः साधर्म्य के अभाव में दृष्टान्त नहीं होते हैं ।
प्रायः शब्द का प्रयोग क्यों किया गया ? इस शंका का समाधान करते हुए कहा है कि क्या कभी वैधर्म्य में भी दृष्टान्त होते हैं ?
स्वर्ण में किस प्रकार आठ गुण होते हैं, इसका विवरण आचार्य हरिभद्र शीलागविधानविधि–पंचाशक की छत्तीसवीं गाथा में इस प्रकार करते हैं
जो सोना, 1. कष- कसौटी पर घिसना, 2. छेद- काटना, 3. ताप - अग्नि में तपाना और 4. ताड़ना - पीटना - इन चार कारणों से शुद्ध सिद्ध हुआ हो, वही सोना
1 पंचाशक- प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 14/35 - पृ. सं. - 251
2 पंचाशक - प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 14/36 - पृ. सं. - 251
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
487
www.jainelibrary.org