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जिस प्रकार वैद्यकशास्त्र किसी का हित नहीं करता है, किन्तु कोई यदि उसका पालन करता है, तो उसके लिए वह हितकारी सिद्ध होता है, उसी प्रकार सर्वज्ञ की आज्ञा भी किसी का हित नहीं करती, किन्तु उसके अनुसार प्रवृत्ति करने वाले का नियमतः हित ही होता है।
अविरतिरूप अध्यवसाय के बिना भी आज्ञापारतन्त्र्य से द्रव्यहिंसादि में प्रवृत्ति द्रव्य, क्षेत्र आदि में प्रतिबन्धरहित होती है, इसलिए सुसाधु की सर्वसावद्य से निवृत्तिरूप विरति के अध्यवसाय को बाधित नहीं करती है।
सर्वज्ञ की आज्ञा के विरुद्ध प्रवृत्ति करने वाला विरतिभाव को खण्डित करता है, इसका समर्थन आचार्य हरिभद्र पंचाशक-प्रकरण की शीलांगविधानविधिपंचाशक की अठारहवीं एवं उन्नीसवीं गाथाओं में इस प्रकार करते हैं
जैनाचार्यों ने कहा है कि आज्ञा-विरुद्ध प्रवृत्ति अपनी मति से विशुद्ध होते हुए भी विरतिभाव को अवश्य बाधित करती है। सूत्र से विरुद्धप्रवृत्ति प्रज्ञानपनीय और अप्रज्ञापनीय- ऐसी दो प्रकार की होती है। सूत्र-विरुद्ध प्रवृत्ति करने वाला यदि गीतार्थ साधु के समझाने पर सूत्रविरुद्ध प्रवृत्ति करना बन्द कर दे, तो वह प्रवृत्ति प्रज्ञापनीय है और यदि बन्द न करे, तो अप्रज्ञापनीय। इसमें प्रज्ञापनीय सूत्रविरुद्ध प्रवृत्ति निरनुबन्ध अर्थात् रोकी जा सके- ऐसी है, क्योंकि विरुद्ध प्रवृत्ति करने वाला साधु अभिनिवेशरहित होने के कारण गीतार्थ वचन स्वीकार कर सूत्रानुसार प्रवृत्ति करता है।
अप्रज्ञापनीय की सूत्रविरुद्ध प्रवृत्ति अभिनिवेश वाली होने के कारण सानुबन्ध है, क्योंकि गीतार्थ के रोकने पर भी उसके वचन को स्वीकार नहीं करने के कारण वह आगम-सम्मत प्रवृत्ति नहीं करता है। यह अप्रज्ञापनीय सूत्रविरुद्ध प्रवृत्ति मूल से चारित्र का अभाव हुए बिना नहीं होती है।
आचार्य हरिभद्र ने शीलांगविधानविधि पंचाशक की बीसवीं गाथा में आचार्य भद्रबाहुस्वामी द्वारा कथित गीतार्थ-अगीतार्थ के विहार की चर्चा का प्रतिपादन किया है
पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 14/18, 19 - पृ. - 246 'पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 14/20 - पृ. - 247
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