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(16) मूलकर्म
गर्भपातादि व्यापार कर भिक्षा देना व्यापार - मूलकर्म-दोष है
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जिससे दीक्षापर्याय का मूल से छेदरूप आठवां प्रायश्चित्त आए, ऐसे
ये उत्पादाना - दोष साधु की असावधानी से उत्पन्न होते हैं ।
आचार्य हरिभद्र ने पिण्डविधानविधि - पंचाशक की पच्चीसवीं गाथा में एषणा शब्द का अर्थ प्रतिपादित किया है- एषणा शब्द का अर्थ एवं पर्यायवाची निम्न हैंएषणा शब्द का अर्थ है - खोजना, ढूंढना ।
एषणा अनेक वस्तुओं की होती है, परन्तु यहाँ एषणा शब्द आहार से
सम्बन्धित है।
एषणा के पर्यायवाची नाम हैं- एषणा, गवेषणा, अन्वेषणा और ग्रहण | एषणा के दोष इस प्रकार से हैं
आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक - प्रकरण के अन्तर्गत पिण्डविधानविधि - पंचाशक की छब्बीसवीं गाथा में एषणा के निम्न दस दोषों का उल्लेख किया हैएषणा के दोषों के नाम
1. शंकित 2. ग्रक्षित 3. निक्षिप्त 4. पिहित 5. संहृत 6. दायक 7. उन्मिश्र 8. अपरिणत 9. लिप्त और 10 छर्दित- ये दस दोष एषणा के हैं, जो दोनों पक्ष से आहार लेते समय व देते समय लगने वाले दोष हैं।
साधु व गृहस्थ- दोनों आहार लेते समय एवं देते समय विवेक रखें, तो इन दोषों से बचा जा सकता हैं। साधु दोषों से बचकर आहार लेता है, तो संयम का पालन शुद्धतापूर्वक होता है और गृहस्थ विवेक रखते हुए दोषी आहार साधु को न बहराए, तो साधु के शुद्धाचार में सहयोगी बनता है। गृहस्थ को भोजन बनाते समय पूर्ण विवेक रखना चाहिए। गृहस्थ अपने लिए भोजन बनाए तथा गृहस्थ भोजन बनाते समय साधु को किंचित् भी याद न करे एवं भोजन करते समय साधु को भूले भी नहीं । गृहस्थ भोजन बनाने के लिए समय की पूर्ण मर्यादा रखे । गृहस्थ जीवन - पर्यन्त रात्रि-भोजन का
' पंचाशक - प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 13/25- पृ. - 230
1 पंचाशक- प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि - 13/26- पृ.
231
2 पंचाशक - प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 13 / 27, 28, 29 - पृ. - 231
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