Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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1.संयोजना- आहारादि में विशेषता लाने के लिए, आहार को स्वादिष्ट बनाने के लिए, अन्य द्रव्यों का संयोग करना। इस प्रथम भेद संयोजना के, उपकरण और आहारये दो भेद हैं। पुनः इन दोनों के भी, बाह्य और आभ्यन्तर- ये दो-दो भेद हैं। (क) उपकरण-संयोजना- . विभूषा के लिए चोलपट्ट आदि उपकरण मांगकर बाहर पहनकर दिखाना बाह्य उपकरण-संयोजना और उपाश्रय आदि में पहनना आभ्यन्तर-उपकरण-संयोजना है। (ख) आहार-संयोजना- भिक्षार्थ घूमते समय दूध, दही आदि मिलने पर उन्हें अपने भोजन में स्वाद बढ़ाने के लिए लेना बाह्य-आहार-संयोजना है और भोजन करते समय उन्हें स्वाद हेतु मिलाना आभ्यंतर-आहार–संयोजना है। 2. प्रमाण- परिमाण से अधिक भोजन करना। 3. अंगार- चारित्ररूपी काष्ठ के अंगारे अर्थात् कोयले के समान करना। 4. धूम- चारित्ररूपी काष्ठ को धूमयुक्त अर्थात् मलिन करना। 5. कारण- अकारण भोजन करना। प्रमाण आदि चार दोषों का लक्षण(1) पुरुषों के लिए बत्तीस कवल (ग्रास) और स्त्री के लिए अट्ठाईस कवल (ग्रास) भोजन की मात्रा (परिमाण) आगमों में कही गई है, अतः इससे अधिक ग्रहण करना प्रमाण-दोष है। (2) राग-द्वेष के द्वारा चारित्र को अंगारे अर्थात् कोयले के समान बनाना अंगार-दोष है
और चारित्र को धूमयुक्त, अर्थात् किंचित् मलिन बनाना धूम-दोष है। (3) वैयावृत्य (सेवा), ईर्यासमिति का पालन, संयम का पालन, प्रतिलेखनादि क्रिया करने, अपने प्राणों की रक्षा करने, सूत्रार्थ का अध्ययन और चिंतन करने- इन कारणों से साधु को आहार लेना होता है। (4) परिमाण से अधिक और अकारण भोजन ग्रहण करने से अतिचार (दोष) लगता हैं ।
प्रस्तुत प्रकरण का उपसंहार- पिण्डविधानविधि में साधु के आहार-चर्चा के दोषों का पूर्णतः विवेचन किया गया है। यदि साधु इन दोषों से बचकर आहार की गवेषणा
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