Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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अवश्य होते हैं । यहाँ अखण्ड शब्द का प्रयोग करने का प्रयोजन बताते हुए कहा गया है कि (अखण्ड) भाव-चारित्र वाले, ऐसा श्रमणों का विशेषण देने का अभिप्राय यह है कि द्रव्य-साधुओं में ये शीलांग नहीं होते हैं, भाव-साधुओं में ही होते हैं।
श्रमण-धर्म में शील के 18,000 अंग विशुद्ध अध्यवसाय की अपेक्षा से हैं। पालन करने में कम भी हो सकते हैं। 18,000 शीलांग श्रमणों में ही होते हैं, श्रावकों में
नहीं ।
शीलांग के 18,000 भेद- आचार्य हरिभद्र ने शीलांगविधानविधि की तीसरी गाथा में शीलांग के भेदों के द्वारा संख्या के स्वरूप का प्रतिपादन किया है।
___ योग, करण, संज्ञा, इन्द्रिय, भूमि और श्रमणधर्म- ये सब मिलकर अठारह हजार भेद होते हैं। योगादि का स्वरूप- आचार्य हरिभद्र ने शीलांगविधानविधि की चौथी और पांचवी गाथा में योग, करण आदि के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा है
योग तीन हैं- करना, कराना और अनुमोदन करना । करण भी तीन हैं- मन, वचन और काय । संज्ञा चार हैं- आहार, भय, मैथुन और परिग्रह ।
इन्द्रियाँ- श्रोत, चक्षु, नासिका, रसना और स्पर्श।
___ पृथ्वीकायिकादि - पृथ्वी, अप, तेज, वायु, वनस्पति, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पन्चेन्द्रिय- ये नौ जीवकाय और दसवां अजीवकाय- ये दस स्थान (भूमि) हैं। इनकी हिंसा और संग्रह को सर्वज्ञों ने त्याज्य कहा है। अजीवकाय निम्नांकित है- अधिक मूल्यवान् वस्त्र, पात्र, सुवर्णादि धातुएँ, जिनकी प्रतिलेखना न हो सके- ऐसे ग्रन्थ, वस्त्र, तूल प्रावारक आदि, कोदों आदि का पुआल, बकरी आदि का चर्म। श्रमणधर्म – क्षमा, मार्दव, आर्जव, मुक्ति (संतोष), तप, संयम, सत्य, शौच, आकिन्चन्य और ब्रह्मचर्य।
3 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 14/4, 5 - पृ. सं. - 242
| पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 14/6, 7, 8, 9 - पृ. - 242, 243
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