Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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वाले साधु का पिण्ड शुद्धपिण्ड होता है। साधु को विशुद्ध पिण्ड ही लेना चाहिए। अशुद्ध पिण्ड लेने से साधुत्व नहीं रहता है।
___ साधु अपने साधुत्व को बनाए रखने के लिए विशुद्धपिण्ड को समझे, क्योंकि विशुद्धपिण्ड को जाने बिना साधुत्व का पालन दुष्कर है। जब मार्ग का ही पता नहीं है कि कौन-सा मार्ग कहाँ जा रहा है, तो वह अपने लक्ष्य पर किस मार्ग से पहुँचेगा। जिस प्रकार अपने लक्ष्यस्थान पर पहुँचने के लिए मार्ग की जानकारी आवश्यक है, उसी प्रकार साधुत्व को टिकाए रखने के लिए पिण्ड की विशुद्धि को जानना आवश्यक है, अतः आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत पिण्डविधानविधि-पंचाशक की बत्तीसवीं गाथा में विशुद्धपिण्ड को जानने के उपाय बताए हैं।
जिस विषय का प्रत्यक्ष ज्ञान न हो, उसका ज्ञान करने के लिए अतीत-अनागत-वर्तमानकाल सम्बन्धी कायिक, वाचिक एवं मानसिक-विचारणा करना चाहिए। विचारणा इत्यादि से परोक्ष ज्ञान होता है। इसी प्रकार, प्रस्तुत प्रकरण में भी उपयोग-शुद्धि, दर्शन, प्रश्न आदि से आहार के दोषों का ज्ञान हो सकता है। भिक्षा शब्द का अर्थ - भिक्षा शब्द दो अक्षरों से मिलकर बना है- भि + क्षा ।
मि - भिन्न-भिन्न घरों से गवेषणापूर्वक क्षा - क्षाम्यभाव से क्षमाश्रमण द्वारा लिया गया आहार।
भिक्षा का अर्थ श्रमण द्वारा लिए गए आहार के स्वरूप में ही घटित माना गया है।
___ एक भिखारी के लिए भी भिक्षा शब्द का प्रयोग किया जाता है, पर उसके सन्दर्भ में यह प्रयोग अनुचित है, क्योंकि भिखारी तो वह है, जो भिन्न-भिन्न घरों से क्षाम्यभाव से रहित होकर भीख मांगता है। वह न मिलने पर क्रोध भी करता है, गालियां देता है, अभिशाप भी दे देता है, अतः इसे किस प्रकार भिक्षा कह सकते हैं ?
एक भिखारी किसी के घर मांगने गया, वह यह ध्यान नहीं रखेगा कि इस घर में भोजन कितने प्रमाण का है, कितना भोजन लेना चाहिए, कैसा भोजन लेना चाहिए,
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