Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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से) बनाया हुआ भोजन दोष वाला होता है, यह युक्तियुक्त है, किन्तु असंकल्पित गुणवाली भिक्षा युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि वैसा आहार होता नहीं है।
___ आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण के अन्तर्गत पिण्डविधानविधि पंचाशक की सैंतीसवीं गाथा में' उपर्युक्त मत का समाधान किया है, जो इस प्रकार है
गृहस्थ ने अपने आहार के अतिरिक्त श्रमण के लिए अलग आहार बनाने का संकल्प करके आहार बनाया हो, तो ऐसे औद्देशिक, मिश्रजात आदि आहार का साधु को त्याग करना चाहिए, किन्तु श्रमण को देने के संकल्प से रहित मात्र अपने लिए आहार बनाया हो, तो ऐसा आहार त्याज्य नहीं है। यदि गृहस्थ ने अपने ही आहार में से श्रमण को देने का संकल्प किया हो, तो ऐसे आहार में औद्देशिक आदि दोष नहीं लगते हैं, इसलिए उसका त्याग नहीं किया जाता है।
____ पुनः, प्रश्न उपस्थित किया गया कि गृहस्थ केवल अपने लिए भोजन बनाए, यह असम्भव है ? अर्थात् वह अपने भोजन के साथ श्रमण आदि के लिए भी भोजन बनाता ही है, अतः आचार्य हरिभद्र ने पिण्डविधानविधि की अड़तीसवीं गाथा में इस प्रश्न का समाधान दिया है।
सभी गृहस्थ केवल पुण्य के लिए आहार बनाते हों- ऐसा नहीं है। कुछ मात्र अपने परिवार के लिए ही आहार बनाते हैं, क्योंकि कुछ विशिष्ट लोगों के घरों में सूतक (जन्म, मृत्यु) के समय भी अन्य दिनों की तरह ही आहार बनता है, अन्य दिनों से कम नहीं बनता है, क्योंकि सूतकादि के समय दान नहीं दिया जाता है। यदि सामान्य दिनों में दान देने के संकल्प से अधिक भोजन बनाया जाता, तो सूतकादि के समय कम भोजन बनना चाहिए, किन्तु ऐसा नहीं होता है, इसलिए सिद्ध हुआ कि कुछ घरों में अपने परिवार को जितना चाहिए, उतना ही आहार बनता है और उसी में से दान भी दिया जाता है।
___ यहाँ छत्तीसवीं गाथा में उठाए गए प्रश्न का समाधान सैंतीसवीं एवं अड़तीसवीं गाथाओं में किया गया है।
पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-13/37 - पृ. -235
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