Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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योग और 16. मूलकर्म - से सोलह दोष उत्पादन के हैं, जो साधु के द्वारा आहार गृहस्थ से आदि प्राप्त करते समय में लगते हैं ।
आचार्य हरिभद्र ने पिण्डविधानविधि - पंचाशक के अन्तर्गत बीसवीं से लेकर चौबीसवीं गाथाओं में उत्पादना के सोलह दोषों का विवरण किया है, जिससे यह प्रतीत होता है कि किस प्रकार साधु आहार लेते समय इन दोषों को लगाता है, जिससे संयम दूषित होता है तथा ये दोष संयम से पतन के कारण बनते हैं। इन दोषों को लगाकर यदि साधु भिक्षा ग्रहण करता है, तो यह स्पष्ट आभास हो जाता है कि साधु जिह्वा का लोलुप है, संयम का आकांक्षी नहीं है, क्योंकि रसना का लोलुप साधु ही इस प्रकार की प्रवृत्ति करेगा और गृहस्थ को प्रसन्न करके आहार ग्रहण करेगा, अन्यथा वह अपनी साधना एवं संयम के बल पर संयम - रक्षा हेतु पर्याप्त शुद्ध आहार की गवेषणा कर ही लेगा। यदि साधु गृहस्थ - वर्ग को प्रसन्न करके आहार ग्रहण करता है, तो वह किसी नाटककार आदि से कम नहीं है। नाटक आदि करने वाले अपनी आजीविका के लिए लोगों को प्रसन्न करके धन एकत्रित करने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार से नृत्य करते हैं, जिससे जनता प्रसन्न होकर इन पर धन न्यौछावर कर दे ।
जैन-कथानकों में वर्णन आता है कि इलापुत्र एक लड़की को पाने के लिए किस प्रकार राजा को प्रसन्न करके धन का इच्छुक बना हुआ था । एक भिखारी किस प्रकार धन की लालसा में सेठ लोगों की प्रशंसा कर, अथवा उन्हें आशीर्वाद आदि देकर प्रसन्न करके धन पाना चाहता है। भाट चारण आदि राजा-महाराजा की विरुदावलि आदि सुना-सुनाकर प्रसन्न कर धन प्राप्त करना चाहत हैं। क्या साधु इस प्रकार गृहस्थ - लोगों को प्रसन्न करके आहार ग्रहण करे ? क्या साधु का स्तर इन नाटककारों आदि के समकक्ष है कि साधु भिक्षा लेने के लिए गृहस्थ की प्रशंसा कर अथवा उसका भविष्य आदि बताकर गृहस्थ को प्रसन्न कर आहार ग्रहण करे। साधु को इन उत्पादन - दोषों से बचकर ही आहार ग्रहण करना चाहिए । उत्पादना के दोष इस प्रकार से हैं
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