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क्रीत-दोष
साधु के लिए खरीद कर वस्तु देना क्रीत-दोष है। आचार्य हरिभद्र पंचाशक-प्रकरण के अन्तर्गत पिण्डविधानविधि-पंचाशक की ग्यारहवीं गाथा में प्रस्तुत दोषों की चर्चा करते हैं
घर का दरवाजा नीचा होने के कारण घर में अंधेरा हो, तो साधु को आने पर प्रकाश के लिए खिड़कियों को खोलना और दीप जलाना आदि प्रादुष्करण-दोष हैं, क्योंकि ऐसा करने से जीव-हिंसा होती है। साधु के लिए पैसे से खरीदकर भिक्षा देना क्रीत-दोष है। यह चार प्रकार का होता है- स्वद्रव्य, परद्रव्य, स्वभाव और परभाव।। (1) स्वद्रव्य-क्रीतदोष- रूपपरावर्तिनी गुटिका, अथवा रक्षा हेतु कोई पदार्थ आदि देकर आहरादि प्राप्त करना स्वद्रव्य-क्रीतदोष है। (2) परद्रव्य-क्रीतदोष- गृहस्थ द्वारा साधु के लिए क्रय किया हुआ आहार परद्रव्य-क्रीत-दोष है। (3) स्वभाव-क्रीतदोष- धर्मकथा, जाति, कुल, तप, आतापना आदि के आधार पर भिक्षा ग्रहण करना स्वभाव-क्रीत-दोष है। (4) परभाव-क्रीतदोष
धर्मकथा आदि से प्रभावित करके, अथवा पटादि दिखाकर आहार ग्रहण करना परभाव-क्रीतदोष है। प्रामित्य और परावर्तित-दोष का स्वरूप प्रामित्य-दोष- आहारादि उधार लेकर साधु को भिक्षा देना प्रामित्तदोष है। परावर्तित-दोष- खाद्य पदार्थों को अदल-बदल कर साधु को भिक्षा देना परावर्तित-दोष है।
आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत विषय का प्रतिपादन पिण्डविधानविधि- पंचाशक की बारहवीं गाथा में किया है।
साधु को दूसरे से उधार लेकर देना प्रामित्य-दोष है। साधुओं का गौरव हो और अपनी लघुता न दिखे, इसके लिए अपने कोदों आदि हल्की वस्तू दूसरे को देकर उससे उत्तम चावल आदि लेकर भात बनाना और साधु को देना परावर्तित-दोष है।
| पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 13/11 - पृ. - 226 1 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 13/12 - पृ. -226
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