Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
View full book text
________________
समादेश- निर्ग्रन्थों के लिए बनाया गया आहार समादेश कहलाता है।
इस प्रकार, उद्दिष्ट, कृत और कर्म के चार-चार भेद की अपेक्षा से बारह भेद औद्देशिक-दोष के हैं। पूति और मिश्रदोष का स्वरूपपूतिकर्म - शुद्ध आहार में अशुद्ध आहार मिलाकर पूरे आहार को शुद्ध बनाना पूतिकर्म है। मिश्रजात - गृहस्थ और साधु- दोनों के मिश्रित उद्देश्य से बनाया गया भोजन मिश्रजात है।
आचार्य हरिभद्र ने पिण्डविधानविधि-पंचाशक के अन्तर्गत नौवीं गाथा में पूतिकर्म एवं मिश्रजातकर्म के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए कहा है
आधाकर्मिक आहार के एक अंश से भी युक्त आहार पूतिदोष से युक्त होता है। पूतिदोष उपकरण और भक्तपान के भेद से दो प्रकार का है। आधाकर्मिक चूल्हा आदि उपकरणों के संयोग से शुद्ध आहार पूतिदोष वाला बनता है। आधाकर्मिक आहार-पानी से मिश्रित शुद्ध आहार-पानी, पूतिदोष वाला बन जाता है।
पहले से गृहस्थ और साधु- दोनों के लिए एक साथ भोजन बनाया हो, तो वह गृहिसंयतमिश्र नामक मिश्रजात-दोष है। मिश्रजात के भी गृहियावदर्थिक और गृहिपाखण्डिमिश्र- ये दो दोष जानना चाहिए। गृहस्थ और याचक- दोनों के लिए पहले से बनाया गया भोजन गृहियावदर्थिक है तथा गृहस्थ और पाखण्डी, अर्थात् अन्य परम्परा के श्रमण के लिए बनाया गया भोजन गृहिपाखण्डिमिश्र-दोष से युक्त है। स्थापन और प्रामृतिका-दोषआचार्य हरिभद्र ने प्राभृतिका-दोष के भेद-प्रभेदों का वर्णन प्रस्तुत अध्याय की दशवीं गाथा में किया है
पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 13/9 - पृ. - 224 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 13/10 - पृ. -225
458
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org