Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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हुए आचार्य हरिभद्र प्रत्याख्यानविधि-पंचाशक की चंवालीसवीं से छयालीसवीं तक की गाथाओं में' कहते हैं कि
जो साधु भोजन करके मानसिक और शारीरिक-उदासीनता से रहित होकर अपनी भूमिका के अनुरूप सदा उचित प्रयत्न करता है, उसके आहार के प्रत्याख्यान में अनुबन्ध-भाव होता है, अर्थात् उसके प्रत्याख्यान के परिणाम का विच्छेद नहीं होता है।
जो गुरु के आदेश से अपनी भूमिका के अनुरूप कार्य करे और उससे भिन्न अन्य कार्य न करें, तो भी उसे प्रत्याख्यान का लाभ तो होता ही है, क्योंकि अपनी भूमिका के अनुरूप कार्य से गुरु द्वारा कहा गया कार्य प्रधान है, अर्थात् गुर्वाज्ञा प्रधान है। गुर्वाज्ञा के भंग होने पर सभी अनर्थ होते हैं, इसलिए शास्त्र में कहा गया है कि छः, आठ, दस, बारह, पन्द्रह उपवास और मासक्षमण करे, किन्तु यदि गुरु की आज्ञा नहीं माने, तो वह अनन्त-संसारी होता है। प्रत्याख्यान से अविद्यमान वस्तु का भी लाभ - जो वस्तु हमारे पास नहीं है और वह मिलने वाली भी नहीं है, फिर भी उसका त्याग हमारे लिए लाभदायक है, क्योंकि विकल्प तभी समाप्त होते हैं, जब हम वस्तु का त्याग कर देते हैं, अन्यथा हमारे त्याग नहीं हैं, तो पाने की संभावना के विकल्प चलते ही रहते हैं और विकल्प आश्रव का हेतु बनते हैं। आश्रव, बंध का कारण बना रहता है। वस्तु के अभाव में भी वस्तु का विकल्प अनर्थदण्ड का कारण बनता है, अर्थात् वस्तु को भोगते भी नहीं है और कर्म बन्धते रहते हैं, इसलिए कहा जाता है कि संसार में अनगिनत वस्तु हैं, जिनका उपभोग नहीं होता है, उन अनावश्यक वस्तुओं का त्याग कर देना चाहिए, जिससे अनर्थ दण्ड से बचा जा सकें।
कई लोगों का प्रश्न है कि हम जिन वस्तुओं का उपभोग नहीं करते हैं, उसका पाप हमें क्यों लगेगा ? वे पाप हमें क्यों भोगने पड़ेंगे ? इसे हम इस उदाहरण से समझ सकते हैं। आपने किराए का मकान लिया हो और उसमें ताला लगा दिया हो,
1 पंचाशक-प्रकरण- आचार्य हरिभद्रसूरि - 5/44 से 46 – पृ. – 96,97
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