Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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प्राणातिपात-विरमण आदि अणुव्रतों, शीलव्रतों और गुणव्रतों के गृहीत प्रत्याख्यानों और पौषधव्रत का सम्यक् परिपालन व्रत-प्रतिमा है। इसमें सामायिक और देशावकाशिक का सम्यक् प्रतिपालन नहीं होता है। रत्नकरण्डक-श्रावकाचार में माया, मिथ्यात्व और निदान- इन शल्यों से रहित पांच अणुव्रतों एवं सात शीलव्रतों को धारण करने वाले श्रावक को व्रती श्रावक कहा गया है। कार्तिकेयानुप्रेक्षा, उपासकाध्ययन, अमितगति-श्रावकाचार में बारह व्रतों के अतिचाररहित परिपालन करने को व्रत-प्रतिमा माना है। इस प्रकार जब श्रावक सम्यग्दृष्टि से युक्त होता है, तब वह संयम के विकास में भी आगे बढ़ने का प्रयत्न करता है और वह इस व्रत-प्रतिमा में अपनी शक्ति के अनुसार पांच अणुव्रतों, तीन गुणव्रतों एवं सामायिक-पौषध के अतिरिक्त शिक्षाव्रतों का निरतिचार पालन करता है। प्रश्न है कि इस व्रत-प्रतिमा में सामायिक व पौषध का पालन क्यों नहीं करता है ?
सामायिक एवं पौषध प्रारम्भिक-विकास के लिए विधिरूप हैं, अतः इसका अभ्यास श्रावक अलग प्रतिमा के रूप में करता है। अणुव्रतों की प्राप्ति - आचार्य हरिभद्र ने सम्यक्त्व की प्राप्ति के कितने समय के बाद व्रतों की प्राप्ति होती है- इसकी चर्चा पंचाशक-प्रकरण के उपासकप्रतिमा विधि के अन्तर्गत् की है।
सम्मत्तोवरि ते सेसकम्मुणो अवगए पुहुत्तम्मि।
पलियाण होति णियमा सुहाय परिणाम रूवा उ।।" सम्यग्दर्शन की उपलब्धि के पश्चात् उस समय कर्मों की जितनी स्थिति है, उसमें से दो से लेकर नौ पल्योपम तक की स्थिति जब कम हो, तब अणुव्रतों की उपलब्धि अवश्य
+ पंचाशक-प्रकरण - आ. हरिभद्रसूरि- 10/9 - पृ. - 166
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