Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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____ नौवीं कक्षा में साधक अन्यों को भी आदेश देकर किसी भी प्रकार के सांसारिक कार्य नहीं करवाता है। वर्तमान में भी कुछ श्रावक अवश्य ही इस नियम का पालन करते हैं, अर्थात् संसार के सावद्य-कार्य से मुक्त होकर, आत्मदर्शी बनकर निर्लिप्त भाव से आत्म-साधना करते हैं। यह भूमिका निवृत्ति-मार्ग में बड़ा हुआ प्रथम चरण है।
दसवीं कक्षा में प्रवेश प्राप्त करने वाला साधक अपने लिए बने हुए भोजन का त्याग कर देता है, मुंडन करवाता है, भूमि, तिजोरी आदि में रखे हुए धन-धान्य आदि के विषय में पुत्रादि के पूछने पर मात्र हाँ या ना में प्रत्युत्तर देता है, परन्तु स्वयं सांसारिक-कार्यों में किसी भी प्रकार की रुचि नहीं रखता है, बल्कि उनके प्रति उदासीन रहता है। वर्तमान में भी कुछ श्रावक इस नियम का पालन करते हैं, यद्यपि ऐसे लोगों की संख्या बहुत ही कम है।
__ ग्यारहवीं कक्षा के साधक की चर्या साधुवत् होती है, अन्तर इतना ही रहता है कि साधु भिक्षा के लिए शुद्ध सात्विक आहार करने वाले किसी भी जाति के व्यक्ति के घर जा सकते हैं, जबकि इस प्रतिमा का साधक अपने प्रिय स्वजाति जन के घर पर आहार लेने जाता है। वर्तमान में श्रावक इस नियम का भी पालन एक दिन के लिए करते हैं। इसे गोचरी पौषध या दयाव्रत कहा जाता है। इस प्रतिमा में साधक गृहस्थ-जीवन के मोहपाश को तोड़ने के लिए साधुवत् चर्या का पालन करता है और अपने संसार के परिभ्रमण को कम करने का प्रयास करता है।
प्रस्तुत प्रतिमाओं का सांगोपांग अध्ययन करने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि इन प्रतिमाओं का पालन वर्तमान में भी सम्मत है। वर्तमान-काल में भी श्रावक इन नियमों का सुचारु रूप से पालन कर सकता है।
दूसरा निष्कर्ष यह निकलता है कि इन प्रतिमाओं की व्याख्या करते हुए दिगम्बर व श्वेताम्बर-परम्परा में कहीं भी ऐसा उल्लेख नहीं आया है कि श्राविकाएँ इन प्रतिमाओं का पालन नहीं कर सकती हैं, अतः इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि श्राविकाएँ भी इन नियमों का पालन कर सकती हैं। यहाँ प्रश्न यह भी उठता है कि श्रावक को ही इन प्रतिमाओं को ग्रहण करने का अधिकार है, श्राविकाओं को नहीं, क्योंकि इन प्रतिमाओं के प्रतिज्ञा-पाठ में श्रावक शब्द का ही प्रयोग किया गया है, यदि
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