Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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चाहिए, परन्तु एकाकी नहीं रहना चाहिए, क्योंकि एकाकी रहने पर क्षमादि गुणों का ह्रास होगा और स्वछंदवृत्ति का प्रवेश हो जाएगा, जिससे न तो गीतार्थ की योग्यता प्राप्त हो सकेगी और न ही कर्म-निर्जरा हो सकेगी।
आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण की चौबीसवीं गाथा में सच्चे गुरु की शरण ग्रहण करने का ही सुझाव दिया है।
आचार्य हरिभद्र ने साधुधर्मविधि-पंचाशक के अन्तर्गत दशवैकालिकसूत्र के अनुसार विशिष्ट एकाकी साधु के विचरण की चर्चा की है, परन्तु सामान्य साधु की अपेक्षा से समूह में विचरण के विधान की बात पच्चीसवीं एवं छब्बीसवीं गाथाओं में कही है।
__ आगम के अनुसार, अपने से अधिक गुणों वाले या समान गुणों वाले यदि किसी मुनि का सहयोग न मिले, तो अपनी बुद्धि से आगमानुसार चिन्तन करते हुए एकाकी विचरण करना चाहिए। आगम में गीतार्थ के एकाकी विचरण को पाप का त्याग करने वाला कहा गया है, परन्तु अगीतार्थ का एकाकी विचरण पाप के त्याग का हेतु नहीं हो सकता है। अज्ञानी क्या कर सकता है ? इस आगम-वचन से उपर्यक्त बात सिद्ध होती है कि एकाकी विचरण की आज्ञा उन्हीं के लिए है, जो गीतार्थ है, क्योंकि गीतार्थ मुनि एकाकी विचरण करने पर भी जिनाज्ञा के विरुद्ध कोई भी प्रवृत्ति नहीं करेगा, किन्तु इससे यह भी सिद्ध होता है कि जो क्षमा आदि गुणों से परिपक्व नहीं है, जो अज्ञानी एवं अगीतार्थ है, उसके एकाकी विचरण से जिन-शासन की अवहेलना ही होती है, अतः गीतार्थ मुनि ही कारणवशात् एकाकी विचरण कर सकते हैं, अन्य नहीं।
इसी बात को सिद्ध करते हुए आचार्य हरिभद्र पंचाशक-प्रकरण के अन्तर्गत साधुधर्मविधि-पंचाशक की सत्ताईसवीं, अठाईसवीं, उनतीसवीं और तीसवीं गाथाओं में लिखते हैं
जात और अजात के भेद से कल्प दो प्रकार का होता है। ये दोनों पुनः समाप्त-कल्प और असमाप्त-कल्प के भेद से दो-दो प्रकार के होते हैं।
पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 11/24 - पृ. - 190 2 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-11/25, 26 -पृ. - 191
। पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 11/27 से 30 – पृ. – 191
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