Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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(4) गमनशुद्धि
युगप्रमाण दृष्टि रखकर चलना । विचार करके बोलना ।
(5) भाषाशुद्धि
(6) विनयशुद्धि
आचार्य आदि के प्रति विनीत होना ।
(7) कमलपत्र की तरह का अर्थ है(8) कांसे के बर्तनों की तरह स्नेहरहित (मोह - रहित ) होना । (9) शंख की तरह निरंजन, अर्थात् बिल्कुल श्वेत होना । ( 10 ) कछुए की तरह इन्द्रियों को नियन्त्रण में रखना, आदि गुणों से युक्त साधु, भावसाधु कहलाने योग्य है ।
कमलपत्र की तरह निरपेक्ष (निर्लेप ) होना ।
इसी प्रकार सूयगडांग, प्रवचन - सारोद्धार पुष्पमाला, धर्मसंग्रह सारोद्धार आदि में भी सुविहीत साधु के लक्षण बताए गए हैं।
साधुधर्म का फल जो साधु भाव साधुत्व से युक्त है, अर्थात् आप्तवचनों के अनुसार जिस साधु की द्रव्य एवं भावरूप प्रवृत्ति है, वह द्रव्य एवं भाव - दोनों दृष्टि से साधु है। वस्तुतः, भावसाधु ही गुणस्थानों की श्रेणी में चढ़ता हुआ अयोगी - गुणस्थान का स्पर्श कर शैलेषीकरण करता है एवं सिद्धत्व को प्राप्त करता है, अतः साधु अपने स्वरूप को द्रव्य तक ही सीमित नहीं रखे, अपितु भावसाधुत्व में प्रवेश करके भावसाधक के स्वरूप में स्थित हो जाए, जिससे साधुधर्म का फल प्राप्त कर सके। इस फल को साधु कैसे प्राप्त कर सकता है, इसी का प्रतिपादन करते हुए आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत पंचाशक की पचासवीं गाथा में कहा है
उक्त गुणों वाला भावसाधु स्वयं संविग्न होता है, दूसरों के मन में अपने उपदेश और अच्छे आचरण से संवेग, अर्थात् वैराग्यभाव उत्पन्न करता है, ऐसा साधु दुराग्रहों से रहित होने से जल्दी ही शाश्वत सुख वाले मोक्ष को प्राप्त करता है ।
भावसाधुधर्म का फल मोक्ष ही है, क्योंकि मोक्ष - फल पाने के पश्चात् और कोई फल पाना शेष नहीं रहता है।
' पंचाशक - प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 11/50 - पृ. - 200
2 प्रवचन - सारोद्धार - आ. नेमीचन्द्र द्वार- 105 भाग- 1 - गाथा 780
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