Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
View full book text
________________
घात नहीं होता है, क्योंकि चारित्र के विपरीत प्रवृत्ति करने पर भी जीव में पश्चाताप जैसी प्रवृत्ति होने के कारण दर्शन और ज्ञान का स्वरूप रहता है और जो अनाभोग आदि के कारण निषिद्ध आचरण करते हैं, वे पश्चाताप भी करते हैं। पश्चाताप, प्रायश्चित्त और संवेग, दर्शन और ज्ञान के कार्य हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि अनाभोग से चारित्र का घात होने पर भी दर्शन और ज्ञान का घात नहीं होता है।
इस विषय में हम यह मान सकते हैं कि दोनों पक्ष से की गई बात अपने-अपने दृष्टिकोण से सत्य सिद्ध होती है।
निश्चयनय से आप्तवचन को नहीं मानने के कारण, अर्थात् मन व काया की क्रिया एक समान बताने के कारण मिथ्यात्व की बात कही है, व व्यवहारनय से क्रिया निश्चयनय की है और अध्यवसाय में पश्चाताप होने के कारण चारित्र का घात बताया है, पर वह दर्शन वह दर्शन व ज्ञान का नहीं।
आचार्य हरिभद्र प्रस्तुत साधुधर्मविधि-पंचाशक में भावसाधु के स्वरूप का प्रतिपादन करते हुए उनपचासवीं गाथा में' कहते हैं
प्रस्तुत अध्ययन में गुरुकुलवास के गुणों का विशद वर्णन किया है कि गुरु किस प्रकार मूलगुणों से युक्त होते हैं, क्योंकि गुरु ने गुरुकुलवास में रहकर अपनी योग्यता को प्रकट कर लिया है, आदि। इस प्रकार, जो गुरुकुलवास-रूप गुणों से युक्त है, जिसमें सुविहीत साधु के वसतिशुद्धि आदि लक्षण भी दिखाई देते हैं तथा
औपपातिकसूत्र के अनुसार कमलपत्र आदि के अनुरूप जिसमें अनासक्तभाव है, उसे भावसाधु समझना चाहिए।
सुविहीत साधु के लक्षण निम्न प्रकार से हैं(1) वसतिशुद्धि- वसति का प्रमार्जन आदि सही प्रकार से करना, अर्थात् स्त्री, पशु आदि से रहित वसित में रहना। (2) विहारशुद्धि- शास्त्रोक्त मासकल्प आदि विधि से विहार करना। (3) स्थानशुद्धि- उचित स्थान में कायोत्सर्ग करना।
'पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 11/49 - पृ. सं. - 199
425
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org