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से चारित्र का ही घात होता है, दर्शन तथा ज्ञान का नहीं। धर्मसंग्रह-सारोद्धार का यह कथन पंचाशक के तुल्य ही है।'
उपदेशमाला में भी निश्चयनय-मत एवं व्यवहारनय-मत की व्याख्या पंचाशक के अनुसार ही की गई है। ..
निश्चयनय के अनुसार, यह कहा गया है कि चारित्र के नष्ट होने पर दर्शन एवं ज्ञान भी विलुप्त हो जाता है, पर व्यवहारनय से यह बात मान्य नहीं है, अतः निश्यचनय के द्वारा आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत छयालीसवीं गाथा में यह स्पष्ट किया है
निश्चयनय के अनुसार, जो आप्त-वचन को नहीं मानता है, उससे बढ़कर और कौन मिथ्यादृष्टि हो सकते हैं, अर्थात् आप्तवचन को नहीं मानने वाला ही सबसे बड़ा मिथ्यादृष्टि (मिथ्यात्वी) है, क्योंकि आप्तवचनानुसार चारित्र-आराधना नहीं करने वाले को दर्शन और ज्ञान नहीं होता है। श्रद्धा एवं सम्यग्ज्ञान न होने के कारण वह मिथ्यादृष्टि है, परन्तु इतना ही नहीं, वह अपने असद् आचरण से दूसरों को भी जिन-प्रवचन के प्रति शंका आदि उत्पन्न करवाने में निमित्त बनता है, जिससे भी उसका मिथ्यात्व प्रगाढ़ होता रहता है।
आचार्य हरिभद्र ने व्यवहारनय के मत का भी स्पष्टीकरण निम्न सैंतालीसवीं एवं अड़तालीसवीं गाथाओं में किया है
जिस प्रकार निश्चयनय के अनुसार चारित्र का विघात होने पर दर्शन एवं ज्ञान का विघात अवश्य होता है, उसी प्रकार व्यवहारनय के अनुसार अनन्तानुबंधी-कषाय के कारण पृथ्वी को जीव न मानकर उसका आरम्भ करने रूप मिथ्या अभिनिवेश से चारित्र का भी विघात होता है, साथ ही दर्शन और ज्ञान का भी विघात होता है। प्रतिषिद्ध पृथ्वीकाय आदि सम्बन्धी आरम्भ करने से चारित्र का, अश्रद्धा से दर्शन का और अज्ञानता से ज्ञान का घात होता है, किन्तु किसी प्रकार के अभिनिवेश के बिना अनाभोग आदि के कारण विपरीत प्रवृत्ति होने से चारित्र का घात होने पर भी दर्शन और ज्ञान का
3 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 11/46
- पृ. सं. - 198
। पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 11/47, 48
- पृ. - 198
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