Book Title: Panchashak Prakaran me Pratipadit Jain Achar aur Vidhi Vidhan
Author(s): Kanakprabhashreeji
Publisher: Kanakprabhashreeji
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है। चारित्र की शुद्धि के लिए दर्शन एवं ज्ञान अति आवश्यक हैं। दर्शन और ज्ञानादि की चर्चा आचार्य हरिभद्र ने पंचाशक-प्रकरण के साधुधर्मविधि-पंचाशक की चंवालीसवीं एवं पैतालीसवीं गाथाओं में किया है
ज्ञान और दर्शन के होने पर चारित्र अवश्य होता है, इसलिए जो चारित्र-गुण में स्थित हैं, उनमें ज्ञान और दर्शन के अस्तित्व का बोध स्वतः ही हो जाता है। जहाँ विशुद्ध चारित्र होता है, वहाँ ज्ञान और दर्शन अवश्य होते हैं, क्योंकि निश्चय और व्यवहार-नय की अपेक्षा से शास्त्र में कहा गया है कि निश्चयनय की दृष्टि से चारित्र का घात होने पर ज्ञान और दर्शन का भी घात हो जाता है और व्यवहार-नय की दृष्टि से चारित्र का घात होने पर ज्ञान व दर्शन का घात हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है। उपर्युक्त कथन के अनुसार अनन्तानुबन्धी- कषाय के उदय से चारित्र का विघात होने पर ज्ञान और दर्शन का भी विघात होता है, किन्तु अप्रत्याख्यानावरणीय-कषाय के उदय से चारित्र का विघात हो, तो भी ज्ञान और दर्शन का विघात नहीं होता है, क्योंकि उनका उदय दर्शन का विघातक नहीं है।
धर्मसंग्रह-सारोद्धार में भी प्रकारान्तर से यही बात कही गई है। निश्चयन मत से चारित्ररूप आत्मस्वभाव का विघात होने पर ज्ञान और दर्शन का भी विघात माना गया है तथा व्यवहारनय की अपेक्षा से तो चारित्र का विघात होने पर भी दर्शन और ज्ञान का विघात हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है। अनन्तानुबंधी के उदय से चारित्र का घात होने पर दर्शन और ज्ञान का भी घात होता है और अप्रत्याख्यानावरण के उदय
पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 11/44, 45 - पृ. सं. - 197
धर्मसंग्रह सारोद्धार - मानविजयजी - भाग-2 - गाथा- 127 2 उपदे माला -धर्मदासगणि - गाथा-512 - पृ. सं. - 365
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