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हैं एवं परस्पर असद्भावनाएं एक-दूसरे के प्रति नहीं बढ़ती हैं। इसी मिथ्याकार-सामाचारी का विवेचन आचार्य हरिभद्र प्रस्तुत अध्याय की दसवीं गाथा में करते हैं
समिति, गुप्ति आदि रूप चारित्र के व्यापार में प्रवृत्त जीव से यदि कोई छोटी-बड़ी गलती हुई हो, तो यह गलत है- ऐसा जानकर उसका मिथ्या दृष्कृत देना चाहिए, अर्थात् उससे क्षमा याचना करना चाहिए, क्योंकि मिच्छामि दुक्कड़ देने से भावों में सरलता का वास होता है और यह सरलता ही मुक्ति का प्रथम सोपान है। सरलता के अभाव में जीव की आध्यात्मिक-प्रगति रुक जाती है, अतः सरलता का होना आवश्यक है और यह सरलता का प्रवेश हमारे भीतर तब ही हो सकता है, जब हम बड़ी से बड़ी अथवा छोटी से छोटी भूल करने पर सामने वाले से तुरन्त 'मिच्छामिदुक्कडं' कर लेते हैं। यही बात आचार्य हरिभद्र प्रस्तुत पंचाशक की एकादश गाथा में प्रस्तुत करते हैं
यह मेरी गलती थी, ऐसा गलती फिर नहीं करूंगा- ऐसे तीव्र और शुभभाव से मिच्छामि दुक्कड़ देना चाहिए, क्योंकि मिथ्यादुष्कृत देने से कर्मक्षय होता है।
यहाँ तीव्र शब्द का अभिप्राय यह है कि जितने दुर्भावपूर्वक भूल की हो, उससे अधिक शुभभाव से मिथ्या दुष्कृत देना चाहिए, तभी कर्मक्षय होता है। ऐसा तीव्र भावोत्कर्ष मिच्छामिदुक्कडं पद का अर्थ जानने पर होता है।
आचार्य हरिभद्र ने मिच्छामिदुक्कडं पद का अर्थ प्रस्तुत पंचाशक की द्वादश और त्रयोदश गाथाओं में प्रस्तुत किया है
मिच्छामिदुक्कडं- पद में मि, च्छा, मि, दु, क्क और डं- ये छ: अक्षर हैं। इनके अर्थ क्रमशः इस प्रकार हैंमि - मृदुता (नम्रता)। च्छा - ___ दोषों का छादन करना (फिर नहीं होने देना) मि - मर्यादा में।
। पंचाशक-प्रकरण -आचार्य हरिभद्रसूरि- 12/10 - पृ. - 204 - पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 12/11 - पृ. - 205 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 12/12, 13 - पृ. - 206
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