________________
व्याघात तथा इसमें कर्मबंधरूप दोषों का आवागमन होता है, अतः निरतिचार संयम पालन करने का इच्छुक साधु गुरु-आज्ञा में रहकर ही प्रवृत्ति करे, जिससे संयम-आराधना, स्वाध्याय आदि सुचारु रूप से हो सके तथा गमनागमन से होने वाले कर्म-बन्धन आदि दोषों से बचा जा सके।
यही बात आचार्य हरिभद्र प्रस्तुत पंचाशक की बीसवीं से इक्कीसवीं गाथाओं में106 वर्णित करते हैं
निष्कारण बाहर जाने वाले साधु की आवश्यिकी निरर्थक होने से शब्दोच्चारण मात्र है। मात्र शब्दोच्चारणरूप आवश्यिकी मृषाावाद होने के कारण कर्मबन्ध का कारण है। यह तथ्य निपुण पुरुषों को आगम से जानना चाहिए। इसे सामायिक-नियुक्ति में विस्तार से कहा गया है, जो इस प्रकार से है
जिस साधु के कायादियोग प्रतिक्रमण आदि सभी आवश्यकों से युक्त हैं, उस साधु की गुर्वाज्ञापूर्वक बाहर जाते समय आवश्यिकी शुद्ध है, क्योंकि वैसे साधुओं की प्रवृत्ति में आवश्यिकी शब्द का अर्थ घटित होता है। इसके विपरीत साधु की आवश्यकी अशुद्ध है, मात्र शब्दोच्चारणरूप है, क्योंकि उसकी प्रवृत्ति में आवश्यिकी शब्द का अर्थ घटित नहीं होता है। 5. नैषधिकी-सामाचारी- नैषधिकी का अर्थ होता है- निषेध करना, त्याग करना, अतः प्रस्तुत सामाचारी आवश्यिकी-सामाचारी के अनुरूप ही है। जिस प्रकारसेवा, आहार, औषध आदि के लिए वसति (उपाश्रय) से बाहर निकलते समय आवस्सहि शब्द का उच्चारण किया, उसी प्रकार आवश्यक कार्य पूर्ण कर उपाश्रय में प्रवेश करते समय निसीहि शब्द का प्रयोग करना चाहिए, जिसका तात्पर्य यह है कि मैं आवश्यक कार्य पूर्ण करके आ गया हूँ, अब आवागमन की क्रिया का त्याग करता हूँ, निषेध करता हूँ। इस प्रकार कहने पर जिनाज्ञा का पालन होता है एवं गुरु-आज्ञा का सम्मान होता है तथा गुरु-आशातना के दोष से भी बच जाते हैं, क्योंकि उपाश्रय में प्रवेश करते समय निसीहि नहीं बोलने पर हैं, तो गुरु की अवहेलना होती है, क्योंकि गुरु को उसके आगमन का ध्यान नहीं होता है और यही अवहेलना गुरु की आशातना है। 106 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 12/20, 21 – पृ. सं. - 208
437
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org