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4. आवश्यिकी-सामाचारी का स्वरूप- साधु के लिए हर क्षेत्र की मर्यादा नियत है। साधु अकारण कहीं भी भ्रमण न करे, अर्थात् बिना कार्य अपने स्थान से बाहर नहीं जाए। आवश्यक कार्य होने पर ही उसे 'आवस्सही' शब्द का प्रयोग करते हुए बाहर जाना चाहिए। केवल आहार, विहार, निहार और जिनालय जाने आदि आवश्यक कार्यों के लिए ही गमनागमन करना चाहिए, अन्यथा एक स्थल में ध्यान, स्वाध्याय, आदिरूपचारित्र की आराधना करना चाहिए। इसी बात को आचार्य हरिभद्र ने प्रस्तुत पंचाशक की अष्टादश गाथा में कहा है
ज्ञानादि कार्य के लिए गुरु की आज्ञा से आगमोक्त ईर्या-समिति आदि का विधिपूर्वक पालन करते हुए वसति से बाहर निकलते हुए साधु की आवश्यिकी शुद्ध जानना चाहिए, क्योंकि उसमें आवश्यिकी शब्द का अर्थ घटित होता है।
किस कार्य के लिए बाहर जाना चाहिए, इसका भी स्पष्ट उल्लेख आचार्य हरिभद्र ने उन्नीसवीं गाथा में किया है
यहाँ साधु के जो कार्य ज्ञान, दर्शन और चारित्र के साधक हों, वे कार्य तथा भिक्षाटन आदि के कार्य आवश्यक कार्य हैं। इनके अतिरिक्त अन्य कार्य अकार्य हैं, इसलिए ज्ञानादि के साधक कार्य के अतिरिक्त अन्य किसी कार्य के लिए बाहर जाने वाले साधु की आवश्यिकी शुद्ध नहीं है, क्योंकि उसमें आवश्यिकी शब्द का अर्थ घटित नहीं होता है।
निष्प्रयोजन बाहर जाने पर साधु आवस्सहि शब्द का प्रयोग करता है, तो उसे मिथ्याभाषण का दोष लगता है, जो कर्मबन्ध का हेतु है, क्योंकि आवस्सहि कहने का तात्पर्य इससे है कि मैं आवश्यक कार्य के लिए बाहर जा रहा हूँ, पर जब निष्कारण बाहर जा रहा हो और आवस्साही शब्द कहता हो, तो यह मिथ्या भाषण हुआ, जो साधु के दूसरे व्रत को खण्डित करता है, अतः साधु निष्कारण बाहर नही जाए। निष्कारण बाहर जाने का निषेध करने का यह भी कारण है कि इससे संयम-विराधना, स्वाध्याय में
| पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि- 12/18 - पृ. - 207 2 पंचाशक-प्रकरण - आचार्य हरिभद्रसूरि-12/19 -पृ. -207
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